क्रांति १८५७
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झांसी की रानी का ध्वज

स्वाधीन भारत की प्रथम क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर शहीदों को नमन
वर्तमान भारत का ध्वज
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क्रांति १८५७
 

प्रस्तावना

  रुपरेखा
  1857 से पहले का इतिहास
  मुख्य कारण
  शुरुआत
  क्रान्ति का फैलाव
  कुछ महत्तवपूर्ण तथ्य
  ब्रिटिश आफ़िसर्स
  अंग्रेजो के अत्याचार
  प्रमुख तारीखें
  असफलता के कारण
  परिणाम
  कविता, नारे, दोहे
  संदर्भ

विश्लेषण व अनुसंधान

  फ़ूट डालों और राज करो
  साम,दाम, दण्ड भेद की नीति
  ब्रिटिश समर्थक भारतीय
  षडयंत्र, रणनीतिया व योजनाए
  इतिहासकारो व विद्वानों की राय में क्रांति 1857
  1857 से संबंधित साहित्य, उपन्यास नाटक इत्यादि
  अंग्रेजों के बनाए गए अनुपयोगी कानून
  अंग्रेजों द्वारा लूट कर ले जायी गयी वस्तुए

1857 के बाद

  1857-1947 के संघर्ष की गाथा
  1857-1947 तक के क्रांतिकारी
  आजादी के दिन समाचार पत्रों में स्वतंत्रता की खबरे
  1947-2007 में ब्रिटेन के साथ संबंध

वर्तमान परिपेक्ष्य

  भारत व ब्रिटेन के संबंध
  वर्तमान में ब्रिटेन के गुलाम देश
  कॉमन वेल्थ का वर्तमान में औचित्य
  2007-2057 की चुनौतियाँ
  क्रान्ति व वर्तमान भारत

वृहत्तर भारत का नक्शा

 
 
चित्र प्रर्दशनी
 
 

क्रांतिकारियों की सूची

  नाना साहब पेशवा
  तात्या टोपे
  बाबु कुंवर सिंह
  बहादुर शाह जफ़र
  मंगल पाण्डेय
  मौंलवी अहमद शाह
  अजीमुल्ला खाँ
  फ़कीरचंद जैन
  लाला हुकुमचंद जैन
  अमरचंद बांठिया
 

झवेर भाई पटेल

 

जोधा माणेक

 

बापू माणेक

 

भोजा माणेक

 

रेवा माणेक

 

रणमल माणेक

 

दीपा माणेक

 

सैयद अली

 

ठाकुर सूरजमल

 

गरबड़दास

 

मगनदास वाणिया

 

जेठा माधव

 

बापू गायकवाड़

 

निहालचंद जवेरी

 

तोरदान खान

 

उदमीराम

 

ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव

 

तिलका माँझी

 

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

 

नरपति सिंह

 

वीर नारायण सिंह

 

नाहर सिंह

 

सआदत खाँ

 

सुरेन्द्र साय

 

जगत सेठ राम जी दास गुड वाला

 

ठाकुर रणमतसिंह

 

रंगो बापू जी

 

भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर

 

वासुदेव बलवंत फड़कें

 

मौलवी अहमदुल्ला

 

लाल जयदयाल

 

ठाकुर कुशाल सिंह

 

लाला मटोलचन्द

 

रिचर्ड विलियम्स

 

पीर अली

 

वलीदाद खाँ

 

वारिस अली

 

अमर सिंह

 

बंसुरिया बाबा

 

गौड़ राजा शंकर शाह

 

जौधारा सिंह

 

राणा बेनी माधोसिंह

 

राजस्थान के क्रांतिकारी

 

वृन्दावन तिवारी

 

महाराणा बख्तावर सिंह

 

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

क्रांतिकारी महिलाए

  1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
  रानी लक्ष्मी बाई
 

बेगम ह्जरत महल

 

रानी द्रोपदी बाई

 

रानी ईश्‍वरी कुमारी

 

चौहान रानी

 

अवंतिका बाई लोधो

 

महारानी तपस्विनी

 

ऊदा देवी

 

बालिका मैना

 

वीरांगना झलकारी देवी

 

तोपख़ाने की कमांडर जूही

 

पराक्रमी मुन्दर

 

रानी हिंडोरिया

 

रानी तेजबाई

 

जैतपुर की रानी

 

नर्तकी अजीजन

 

ईश्वरी पाण्डेय

 
 


1857 से पहले का संवैधानिक विकास
(1600-1858 ई.तक)


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था
द्वैध शासन या दोहरा शासन व्यवस्था का विकास
द्वैध शासन व्यवस्था की कार्यप्रणाली
द्वैध शासन के लाभ
द्वैध शासन व्यवस्था के दोष

रेग्यूलेटिंग एक्ट (1773 ई.)
रेग्यूलेटिंग एक्ट के पारित होने के कारण
रेग्यूलेटिंग एक्ट की मुख्य धाराएँ उपबन्ध
रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोष
रेग्यूलेटिंग एक्ट का महत्त्व
बंगाल न्यायालय एक्ट
डुण्डास का इण्डियन बिल (अप्रैल 1783)
फॉक्स का इण्डिया बिल (नवम्बर, 1783)

पिटस इंडिया एक्ट (1784 ई.)
एक्ट के पास होने के कारण
एक्ट की प्रमुख धाराएँ अथवा उपबन्ध
एक्ट का महत्त्व
इंग्लैण्ड में द्वैध शासन की स्थापना
द्वैध शासन व्यवस्था के दोष
द्वैध शासन व्यवस्था के गुण
1786 का अधिनियम

1793 से 1854 ई. तक के चार्टर एक्ट्स
1. 1793 का चार्टर एक्ट
2. 1813 का चार्टर एक्ट
3. 1833 का चार्टर एक्ट
4. 1853 का चार्टर एक्ट

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना
1498 ई. में वास्को-डी-गामा नामक पुर्तगाली नाविक ने युरोप से भारत को जाने वाले सामुद्रिक मार्ग की खोज की। यह खोज एक युगान्तकारी घटना सिद्ध हुई। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार गामा की इस खोज ने भारत और यूरोप के पारस्परिक इतिहास के सम्बन्ध में एक नये अध्याय का सूत्रपात किया, इसके फलस्वरूप यूरोप के लोग भारतीय इतिहास के रंगमंच पर पहले व्यापारियों के रूप में और फिर बस्तियों के बनाने वालों के रूप में उतर आए। इस सम्बन्ध में डॉडवेल ने इस प्रकार लिखा है, सम्भवतः मध्ययुग की अन्य किसी भी घटना का सभ्य संसार पर इतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ा, जितना कि भारत जाने के समुद्र मार्ग खुलने का।

वास्को-डी-गाम ने कालीकट के हिन्दू शासक जमोरिन से पुर्तगालियों के लिए व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त की। इसके बाद पुर्तगालियों का भारत में व्यापार आरम्भ हुआ। सोलहवीं शताब्दी में उन्होंने दक्षिणी भारत के पश्चिमी तट पर कालीकट, कोचीन और कलानौर के स्थानों पर अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित किए और गोआ, दमन एवं दीव आदि स्थानों पर अपनी बस्तियाँ स्थापित कर लीं। इतना ही नहीं, उनकी सुरक्षा के लिए वहाँ सुदृढ़ नौसेना भी रखी।

पुर्तगालियों की बढ़ती हुई शक्ति तथा व्यापार से प्रभावित होकर अन्य यूरोपियन देशों ने भी भारत के साथ व्यापार करने के लिए अपनी व्यापारिक कंपनियाँ स्थापित की। 1602 ई. में हालैण्ड के डच व्यापारियों ने भारत में व्यापार के लिए एक कम्पनी स्थापित की। अब भारतीय व्यापार के लिए पुर्तगालियों एवं डचों में संघर्ष आरम्भ हो गया, जिसमें डचों को सफलता प्राप्त हुई।

इस समय इंग्लैण्ड में व्यापारियों ने भी पूर्वी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने का निश्चय किया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु 24 सितम्बर, 1599 ई. को लन्दन के कुछ प्रमुख व्यापारियों ने फाउण्डर्स हॉल में एक सभा की, जिसकी अध्यक्षता नगरपालिका के अध्यक्ष लार्ड मेयर ने की। गम्भीर सोच-विचार के बाद इन व्यापारियों ने व्यापार सम्बन्धी अधिकार प्राप्त करने के लिए महारानी एलिजाबैथ की सेवा में एक प्रार्थना पत्र भेजा। महारानी ने इस प्रार्थना पत्र पर 31 दिसम्बर, 1600 ई. को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। इस प्रकार, भारत के साथ व्यापार करने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई, जिसका नाम गर्वनर एण्ड कम्पनी ऑफ मर्चेण्ट्स इन्टू द ईस्ट इण्डीज (पूर्वी इण्डीज में व्यापार करने वाले व्यापारियों की कम्पनी और प्रशासक) रखा गया।

कम्पनी का संविधान
महारानी के अधिकार-पत्र में कम्पनी के संविधान तथा उसके विशेषाधिकारों का उल्लेख किया गया था। इसके अनुसार कम्पनी के कार्यों का संचालन करने के लिए इंग्लैण्ड में दो समितियाँ थीं-स्वामी मण्डल (Court of Proprietors) एवं संचालक (Court of Directors)

कम्पनी के समस्त हिस्सेदार स्वामी मण्डल के सदस्य होते थे। मण्डल को यह अधिकार था कि वह कम्पनी और उसके कर्मचारियों के लिए उपनियम बना सके और आदेश एवं अध्यादेश जारी कर सके। इसके अतिरिक्त वह नियमों की अवहेलना करने वालों पर जुर्माना करता था एवं उन्हें दण्ड भी देता था। यह धन उधार देता था और सदस्यों के बीच लाभ का वितरण करता था। कम्पनी के व्यापारिक केन्द्रों का प्रशासन तथा कर्मचारियों के नियन्त्रण का अन्तिम उत्तरदायित्व स्वामी मण्डल के हाथ में था। यह मण्डल संचालक मण्डल के निर्णयों में संशोधन, परिवर्तन रद्द भी कर सकता था।

संचालक मण्डल में चौबीस सदस्य होते थे। इसका चुनाव स्वामी मण्डल के सदस्यों द्वारा उन्हीं के बीच से होता था। जिस सदस्य का कम्पनी में दो हजार पौण्ड या इससे अधिक मूल्य का हिस्सा रहता था, वह संचालक मण्डल का सदस्य बनने के लिए चुनाव लड़ सकता था। जिस सदस्य का कम्पनी में पाँच सौ पौण्ड हिस्सा होता था, वह केवल निर्वाचन में वोट दे सकता था। वस्तुतः इस कम्पनी के कार्यों का संचालन स्वामी मण्डल द्वारा निर्मित कानूनं, विधियों, नियमों और उप-नियमों द्वारा करता था।

कम्पनी के शासन प्रबन्ध पर नियंत्रण रखने के लिए एक परिषद् होती थी, जिसमें पाँच सदस्य होते थे। गर्वनर उसका प्रधान होता था। इस प्रकार, वह प्रेसीडेन्सी का सर्वोच्च अधिकारी था। गर्वनर और उसकी परिषद् द्वारा मुख्य कार्य शासन प्रबन्ध पर नियंत्रण रखना, भारतीय शासन से सम्बन्ध स्थापित करना एवं न्याय प्रबन्ध आदि की देखभाल करना था।

कम्पनी के कार्यों का संचालन करने के लिए इसके निजी कर्मचारी होते थे, जिसको वेतन दिया जाता था। उन्हें व्यापार करने का निजी अधिकार भी दिया गया था। यह व्यवस्था कम्पनी के लिए कम खर्चीली तथा आकर्षित करने वाली थी। कर्मचारियों ने अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए अपार धनराशि संग्रहित की थी। उन्होंने भारतीयों का बहुत अधिक आर्थिक शोषण किया। कम्पनी के सदस्यों के बारे में ब्रूस ने लिखा है, स्थापना के समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी को साहसी लोगों की मण्डली कहा गया था, जिसके सदस्य लूट के लिए निकलते थे और जो धन कमाने के लिए झूँठ, बेईमानी तथा फरेब करने में जरा भी संकोच नहीं करते थे। कम्पनी के मालिकों ने शुरू में ही निश्चय कर लिया था कि कम्पनी की नौकरी में वे शरीफ व्यक्ति को नही रखेंगे। इस तरह एक ऐसा गुट कायम हुआ, जिसके सदस्य सच झूठ, ईमानदारी-बेईमानी और न्याय-अन्याय का ख्याल नहीं रखते थे।

कम्पनी की शक्ति में वृद्धि
1600 से 1765 ई. तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी मुख्यतः व्यापारिक संस्था थी। इसका अपना कोई राजनीतिक प्रभाव नहीं था। परन्तु ब्रिटिश पार्लियामेन्ट और भारतीय सभाओं ने उदारतापूर्ण संरक्षण के कारण कम्पनी खूब फली-फूली और वह धीरे-धीरे एक व्यापारिक संस्था से राजनीतिक शक्ति बन गई। इस काल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की शक्ति में असाधारण वृद्धि हुई। उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

जेम्स प्रथम तथा चार्ल्स प्रथम के शासन काल में कम्पनी की उन्नति कम्पनी स्थापना के केवल तीन वर्ष बाद अर्थात् 16903 ई. में महारानी एलिजाबैथ की मृत्यु हो गई और जेम्स प्रथम इंग्लैण्ड का राजा बना। उसने 1609 ई. में महारानी द्वारा कम्पनी को दिए गये अधिकार-पत्र की अवधि में वृद्धि की और कम्पनी के जहाजों की लम्बी यात्राओं में उन पर अनुशासन बनाए रखने के उद्देश्य से अधिकारियों को कुछ अधिकार भी प्रदान किए।

जेम्स प्रथम का उत्तराधिकारी चार्ल्स प्रथम कम्पनी के हितों के प्रति उदासीन था। उसके शासनकाल में 1623 ई. डचों ने कुछ अंग्रेजों का सम्बोना में वध कर दिया। जिसके कारण ब्रिटेन में तीव्रगति से रोष फैल गया। परन्तु चार्ल्स प्रथम ने इस दिशा में कोई कदम तक नहीं उठाया। इसके विपरीत उसने अपने एक कृपापात्र सर विलियम कोर्टन को पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने के लिए एक नई कम्पनी की स्थापना का अधिकार देकर जले पर नमक छिड़का। कोर्टन ने असाडा कम्पनी की स्थापना की, जिसके कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बहुत बहुत नुकसान उठाना पड़ा।

क्रामवैल और कम्पनी
चार्ल्स प्रथम की मृत्यु के पश्चात् आलिवर क्रामवैल इंग्लैण्ड की राजगद्दी पर बैठा। उसने कम्पनी के हितों की रक्षा के लिए हर सम्भव प्रयास किया। उसने डचों से लड़ाई लडी, और बैटमिन्स्टर की 1654 की सन्धि के अनुसार कम्पनी को डचों से 85,000 पौंड की धनराशि क्षतिपूर्ति के रूप में दिलवाई। इस राशि में से क्रामवेल ने 50,000 पौण्ड अपने युद्धों का खर्च पूरा करने के लिए कम्पनी से उधार लिए। ए.सी.बनर्जी ने इस सम्बन्ध में लिखा है, कम्पनी को उसके विशेषाधिकारों के लिए मूल्य चुकाने के लिए विवश करने की नीति का श्रीगणेश किया।

क्रामवैल ने 1657 ई. में एक चार्टर द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा असाडा कम्पनी को मिलाकर एक बना दिया। हण्टर के शब्दों में, इस प्रकार लंदन की यह कम्पनी मध्ययुगीन श्रेणी (Guid) के एक निरर्थक अवशेष से बदल आधुनिक संयुक्त पुँजी कम्पनी का एक सशक्त अग्रदूत बन गई। इस प्रकार, क्रामवैल ने कम्पनी की सराहनीय सहायता की।

चार्ल्स द्वितीय का उदारतापूर्वक संरक्षण
1657 ई. में क्रामवैल की मृत्यु के पश्चात् उनका पुत्र रिचर्ड क्रामवैल इंग्लैण्ड का स्वामी बना, परन्तु वह अयोग्य एवं दुर्बल शासक सिद्ध हुआ। इस पर इंग्लैण्ड की प्रजा ने चार्ल्स के पुत्र चार्ल्स द्वितीय को निर्वासन से वापिस बुलाकर 1660 ई. में देश का राजा बना दिया। चार्ल्स द्वितीय के उदारतापूर्ण संरक्षण के कारण कम्पनी ने असाधारण समृद्धि के काल में प्रवेश किया। उसने अपने शासनकाल में कम्पनी को पाँच अधिकार-पत्र (चाटर्स) प्रदान किए। परिणामस्वरूप कम्पनी के हिस्सों का मूल्य बहुत बढ़ गया और उसे सिक्के बनाने, किले बनाने और उसमें सेना रखने, गैर-ईसाई शक्तियों के साथ युद्ध छेड़ने और सन्धि करने के सभी अधिकार मिल गए। 1688 में चार्ल्स द्वितीय ने बम्बई का नगर, जो उसे पुर्तगाल की राजकुमारी कैथराइन ऑफ ब्रैगैंजा के साथ विवाह में दहेज में मिला था, 10 पौण्ड वार्षिक किराये पर कम्पनी को दे दिया। कम्पनी को इस बन्दरगाह और नगर के तथा इसके निवासियों के लिए कानून, आदेश तथा अध्यादेश और संविधान बनाने का अधिकार दिया गया। इस प्रकार कम्पनी एक व्यापारिक संस्था से भू-स्वामिनी शक्ति बन गई। इसके अतिरिक्त कम्पनी पदाधिकारियों को अपने कर्माचारियों को दण्ड देने के अधिकार भी दिए गये।

जेम्स द्वितीय और कम्पनी
1685 ई. में जेम्स द्वितीय इंग्लैण्ड की राजगद्दी पर बैठा। उसके शासनकाल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बहुत उन्नति की। सन् 1686 के चार्टर द्वारा उसने कम्पनी का नौसेना बनाने का और युद्ध काल में उन पर सैनिक कानून लागू करने का, अपने किलों में मुद्राएँ ढालने का और अधिकरण न्यायालय स्थापित करने का अधिकार दिया गया। 1687 में ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी को मद्रास में नगरपालिका तथा मेयर्स कार्ट (Mayors Court) स्थापित करने की आज्ञा दे दी। इस प्रकार, इस काल में कम्पनी को सैनिक और न्यायिक शक्तियाँ प्राप्त हो गईं। इससे कम्पनी के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ा।

इसके अतिरिक्त कम्पनी के प्रसिद्ध संचालक सर जोसिया चाईल्ड ने भी इसके हितों की हर प्रकार से रक्षा करने के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य किया। एस.सी. इल्बर्ट लिखते हैं, सर जोसिया चाईल्ड ने कम्पनी को एक ह्निग (Whig) समुदाय से टोरी (Tory) समुदाय में परिवर्तित कर दिया और इंग्लैण्ड के शासक जेम्स द्वितीय को इसका हिस्सेदार बना दिया। इसके अतिरिक्त, उसने खुले दिल से रिश्‍वते देकर कम्पनी के हितों को विरोधी तत्त्वों के प्रभाव से सुरक्षित रखा।

1688 की शानदार क्रांति और कम्पनी को हानि
1688 की शानदार क्रांति ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर एक भीषण आघात किया। जेम्स द्वितीय के इंग्लैण्ड से भाग जाने के पश्चात् ह्निग दल (Whig Pary) के नेता बहुत शक्तिशाली हो गए जो कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार के कट्टर विरोधी थे। सर जोसिया चाइल्ड का प्रभाव भी पहले की अपेक्षा कम हो गया था। इन परिस्थितियों से उत्साहित होकर बहुत से व्यापारियों ने, जिन्हें कम्पनी की समृद्धि से ईर्ष्या थी, इसके एकाधिकारों को भंग करना शुरू कर दिया। उन्होंने एक नई व्यापारिक कम्पनी बनाई, जो न्यू कम्पनी के नाम से प्रसिद्ध है। इस नई कम्पनी ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरूद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया।

सन् 1691 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को एक विचित्र संकट का सामना करना पड़ा। इस वर्ष पार्लियामेन्ट ने यह निश्चय किया कि पुरानी और नई दोनों ही कम्पनियों को मिलाकर एक कर दिया जाए। परन्तु सर जोसिया चाईल्ड की हठधर्मी के कारण यह प्रयत्न विफल रहा। इस पर पार्यियामेन्ट ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को तीन वर्ष के भीतर अपना व्यापार समेट लेने का नोटिस दिया और नई कम्पनी के पक्ष में एक चार्टर जारी करने का निश्चय किया। इस विचित्र स्थिति में सर जोसिया चाईल्ड ने बड़ी चतुराई से काम लिया और राजा के मन्त्रियों को उपरहार या रिश्वत आदि देकर अपने पक्ष में कर लिया। परिणामस्वरूप सम्राट ने 1693 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पक्ष में एक अधिकार-पत्र जारी कर दिया। जिसमें कुछ विशेष शर्तों पर कम्पनी के विशेषाधिकारों की पुष्टि की गई थी। इसके बाद कम्पनी को 1698 में एक अधिकार-पत्र (चार्टर) और मिला, जिससे उसकी स्थिति और दृढ़ हो गई।

पुरानी तथा नई कम्पनी का विलय यद्यपि न्यू कम्पनी अभी तक अपने प्रयासों में सफल नहीं हुई थी, तथापि उसके संचालक ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार का विरोध करते रहे और उसे प्रत्येक क्षेत्र में हानि पहुँचाने की कोशिश भी की। उनकी आपसी शत्रुता का ब्रिटिश सरकार ने लाभ उठाया और दोनों कम्पनियों से काफी धन ऋण के रूप में ले लिया। धीरे-धीरे इन दोनों कम्पनियों के बीच विनाशकारी प्रतियोगिता शुरू हुई। इस पर इस संघर्ष को समाप्त करने के लिए लार्ड गोल्डपिन की हस्तक्षेप करना पड़ा। अन्ततः 1708 में दोनों कम्पनियों को मिलाकर एक बना दिया गया। इस प्रकार, एक नई कम्पनी बन गई, जिसका नाम 6 पूर्वी इण्डीज के साथ व्यापार करने वाले इंग्लैण्ड के व्यापारियों की संयुक्त कम्पनी (The United Company of Merchants of England to East Indies)रखागया।

1711 और 1758 के बीच अधिनियम और चार्टर्स
इसके बाद के वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने 1709, 1711, 1730 एवं 1744 में विभिन्न एक्ट्रस पास किए, जिनके फलस्वरूप कम्पनी के विशेषाधिकारों की अवधि 1780 तक हुई। 1709, 1728, 1754, 1756 एवं 1758 में पास होने वाले चार्टरों से भी उनकी शक्तियों में वृद्धि हुई। इस प्रकार, कम्पनी को उसके व्यापार काल (1600-1758) में इंग्लैण्ड की सरकार की ओर से बहुत अधिक सहायता प्राप्त हुई, जिसके कारण वह एक समुद्धशाली संस्था बन गई।

भारतीय राजाओं का संरक्षण
भारत में मुगल सम्राटों तथा देशी शासकों ने भी कम्पनी को व्यापार काल में उदारतापूर्ण संरक्षण दिया और इसे समय-समय पर बहुमुल्य रियायतें दी। 1608 ई. में इस कम्पनी का पहला जहाज हाकिन्स के नेतृत्व में सूरत बन्दरगाह पर पहुँचा। वह अपने ब्रिटेन के राजा का पत्र भी लाया था। वह मुगल सम्राट जहाँगीर के समक्ष अत्यन्त नम्रतापूर्वक उपस्थित हुआ। इस स्थिति का वर्णन करते हुए सुन्दरलाल ने ठीक ही लिखा है, जहाँगीर के दरबार में उस समय किसी को इस बात का गुमान नहीं हो सकता था कि दूर पश्चिम की एक छोटी-सी निर्बल अर्द्ध-सभ्य जाति का जो दूत उस समय दरबार में दो जानू होकर जमीन को चूम रहा था, उसी के वंशज, एक रोज मुगल साम्राज्य को अंग-भंग हो जाने पर हिन्दुस्तान के ऊपर शासन करने लगेंगे।

हाकिन्स ने ब्रिटिश राजा का एक पत्र मुगल सम्राट जहाँगीर को दिया। 6 फरवरी, 1613 ई. को एक शाही फरमान द्वारा अंग्रेजों को सूरत में एक व्यापारिक कोठी स्थापित करने की आज्ञा दी एवं मुगल दरबार में एक प्रतिनिधि रखने की अनुमति दे दी गई। कम्पनी की ओर से सर टॉमस को इस पद पर नियुक्त किया गया। टॉमस रो के प्रयासों से सूरत की कोठी की अत्याधिक उन्नति हुई। इस समय अंग्रेजों ने भडौच, अहमदाबाद और आगरा में भी अपनी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कर दीं।

पी.ई. रॉबर्टस् ने टामस रो के कार्यों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, वह अपनी आशा के अनुसार, विधिवत् और निश्चित सन्धि प्राप्त करने में असफल रहा। परन्तु उसे मुगल साम्राज्य के नगरों में कारखाने स्थापित करने की आज्ञा मिल गई। इतना ही नहीं, उसने तो अपनी राजनीतिक प्रतिभा और बुद्धि कौशल से मुगलों के हृदय में, एक राष्ट्र के रूप में, अंग्रेजों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर दी। उसका सबसे बड़ा काम तो यह था कि उसने कम्पनी के लिए एक ऐसी नीति निर्धारित की, जो आक्रमण भावना से रहित और बिल्कुल व्यावसायिक थी। कम्पनी ने सत्तर वर्ष तक इस नीति का पालन किया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थिति उत्तरोत्तर दृढ़ होती गई।

मद्रास पर अधिकार
1639 में चन्द्रगिरी के हिन्दू राजा ने मसौलीपट्टम के दक्षिण में लगभग 230 मील की भूमि कम्पनी को प्रदान की, जहाँ कि आजकल मद्रास नगर स्थित है। उसने कम्पनी को इस स्थान की किलेबन्दी करने, मुद्रा ढालने, न्याय करने और कुछ विशेष शर्तों के अनुसार शासन करने का अधिकार भी दिया। तीन वर्ष पश्चात् कम्पनी को मद्रास में शासन सम्बन्धी कई अन्य अधिकार भी प्रदान किए गये, जिससे उसका नियंत्रण और अधिक दृढ हो गया। परन्तु इस कम्पनी पर मुगल सरकार का आधिपत्य था और इसके चिह्न स्वरूप कर्नाटक के मुगल सूबेदार को वार्षिक कर देती थी। कम्पनी के मद्रास में ढाले जाने वाले सिक्कों पर भी मुगल सम्राट का पूर्ण नियंत्रण था। सन् 1752 ई. में जब कर्नाटक के सूबेदार ने कम्पनी से वार्षिक कर लेना बन्द कर दिया, तो कम्पनी पूर्णरूप से मद्रास की शासक बन गई।

कलकत्ता की नींव रखना
1690 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने हुगली नदी पर 26 मील नीचे की ओर सुन्तनवी नामक गाँव में एक बस्ती की नींव रखी, जिसने बाद में कलकत्ता नगर का रूप धारण कर लिया। छः वर्ष बाद इस बस्ती की किलेबन्दी की गई और उसका नाम फोर्ट सेंट विलियम (इस जगह आज कलकत्ता बसा हुआ है) रखा। सन् 1968 ई. कम्पनी ने बंगाल के सूबेदार को वार्षिक कर देने का वचन देकर तीन गाँव (सुंतनती, कलकत्ता और गोविन्दपुर) की जमींदारी खरीद ली। कम्पनी ने इस गाँवों से लगान इकट्ठा करने तथा दीवानी मुकदमों का निर्णय करने का अधिकार भी प्राप्त हो गया। सर सर्मन ने इन गाँवों के सम्बन्ध में शाही फरमान प्राप्त करने का प्रयत्न किया, परन्तु स्थानीय सूबेदार के विरोध के कारण उसे सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। 1756 ई. बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने एक औपचारिक सन्धि द्वारा कम्पनी के विशेषाधिकारों की पुष्टि की और उसे मुद्रायें ढालने तथा कलकत्ता की किलेबन्दी करने की अनुमति दे दी। इसके बाद ऐसी राजनीतिक घटनाएँ घटीं, जिनसे कम्पनी एक राजनीतिक शक्ति बन गई।


बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था

17वीं शताब्दी तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में अपनी व्यापारिक स्थिति दृढ़ कर चुकी थी। इसके पश्चात् उसने भारत के राजनीतिक मामलों में विशेष रूचि लेनी आरम्भ कर दी। उसके कर्मचारियों की इस नीति के कारण बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला तथा कम्पनी के आपसी सम्बन्ध बहुत कटु हो गए। इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों पक्षों के बीच 1757 ई. में प्लासी का युद्ध हुआ। इस युद्ध को क्लाइव ने बिना किसी विशेष प्रयास के षड्यंत्र द्वारा जीत लिया। इस युद्ध में सिराजुद्दौला की पराजय होने के कारण अंग्रेज बंगाल के कर्ता-धर्ता बन गए। इसके बाद उन्होंने अपनी इच्छानुसार बंगाल का नवाब बनाने तथा बदलने का कार्य आरम्भ किया। सिराजुद्दौला के पश्चात् उनके सेनापति मीर जाफर ने बंगाल का शासक बनाया गया, जिन्होंने ब्रितानियों के हितों की पूर्ति हेतु अपने स्वामी के साथ विश्वाघात किया था। उन्होंने कलकत्ता पर कम्पनी की प्रभुसत्ता को स्वीकार कर लिया और कम्पनी को सेना रखने का अधिकार दे दिया। इसके अतिरिक्त नवाब बनने के अवसर पर चौबीस परगने भी ब्रितानियों को दे दिए। तीन वर्ष पश्चात् ब्रितानियों ने मीर जाफर को गद्दी से हटा दिया और उनके स्थान पर उनके दामाद मीर कासिम को बंगाल का नवाब नियुक्त कर दिया, ताकि उन्हें अधिक से अधिक धन प्राप्त हो सके। मीर कासिम ने कम्पनी को बर्दवान, मिदनापुर और चिटगाँव के जिले तथा अपार धनराशि दी।

मीर कासिम बहुत योग्य व्यक्ति थे। वह नाम मात्र के नवाब बनकर नहीं रहना चाहते थे। अतः उन्होंने अपनी स्थिति को दृढ़ करने के लिए कुछ प्रशासनिक कदम उठाये, जिसके कारण उनके तथा ब्रितानियों के आपसी सम्बन्ध बहुत बिगड़ गए। परिणामस्वरूप, 1764 ई. में बक्सर नामक स्थान पर युद्ध हुआ। इस युद्ध में ब्रितानियों ने तीन प्रमुख शक्तियों-मुगल सम्राट शाह आलम, बंगाल ने नवाब मीर कासिम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला को पराजित किया था। इससे सम्पूर्ण भारत में ब्रितानियों की शक्ति की धाक जम गई।

इन असाधरण घटनाओं की सूचना पाकर कम्पनी के संचालकों को भारत के सम्बन्ध में बहुत चिन्ता हुई। अतः उन्होंने लार्ड क्लाईव को दुबारा बंगाल का गवर्नर बनाकार भारत भेजा गया। क्लाइव ने भारत में पहुँचकर कम्पनी के असैनिक और सैनिक प्रशासन में अनेक सुधार किए। उन्होंने कर्माचारी वर्ग को निजी व्यापार करने तथा उपहार आदि लेने के लिए मना कर दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेज सैनिक अधिकारियों का भत्ता कम कर दिया तथा रिश्वत और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी आवश्यक कदम उठाये। इन प्रशासनिक सुधारों के अतिरिक्त लार्ड क्लाइव ने 12 अगस्त, 1765 ई. में मुगल सम्राट शाह आलम के साथ एक सन्धि की, जो इलाहाबाद की सन्धि कहलाती है। इस सन्धि के द्वारा बंगाल में दोहरी सरकार अथवा द्वैध शासन की स्थापना हुई।

द्वैध शासन या दोहरा शासन व्यवस्था का विकास
इन असाधरण घटनाओं की सूचना पाकर कम्पनी के संचालकों को भारत के सम्बन्ध में बहुत चिन्ता हुई। अतः उन्होंने लार्ड क्लाईव को दुबारा बंगाल का गवर्नर बनाकार भारत भेजा गया। क्लाइव ने भारत में पहुँचकर कम्पनी के असैनिक और सैनिक प्रशासन में अनेक सुधार किए। उन्होंने कर्माचारी वर्ग को निजी व्यापार करने तथा उपहार आदि लेने के लिए मना कर दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेज सैनिक अधिकारियों का भत्ता कम कर दिया तथा रिश्वत और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी आवश्यक कदम उठाये। इन प्रशासनिक सुधारों के अतिरिक्त लार्ड क्लाइव ने 12 अगस्त, 1765 ई. में मुगल सम्राट शाह आलम के साथ एक सन्धि की, जो इलाहाबाद की सन्धि कहलाती है। इस सन्धि के द्वारा बंगाल में दोहरी सरकार अथवा द्वैध शासन की स्थापना हुई।

बंगाल के नवाब से समझौता : निजामत की प्राप्ति
दीवानी प्राप्त करने के परिणामस्वरूप कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के भूमिकर एकत्रित करने तथा दीवानी मामलों के निर्णय देने का अधिकार प्राप्त हो गया, परन्तु बंगाल को निजामत (प्रान्तीय सैन्य प्रबन्ध तथा फौजदारी मामलों पर निर्णय देने का अधिकार) अब भी मुस्लिम सुबेदारों के हाथों में ही था। 1765 ई. में मीर जाफर की मृत्यु हो गई और उनके बाद उनके अल्पवयस्क पुत्र नज्मुद्दौला बंगाल के नवाब बने। इसी समय कम्पनी ने शिशु नवाब पर एक सन्धि थोप दी। इस सन्धि के द्वारा 53 लाख रूपया वार्षिक के बदले में कम्पनी ने निजामत (फौजदारी) के अधिकार भी प्राप्त कर लिए। निजामत के अधिकार के अनुसार शान्ति व्यवस्था, बाह्य आक्रमणओं से रक्षा, विदेशी मामले, फौज तथा फौजदारी मामलों में न्याय देने का अधिकार भी कम्पनी को प्राप्त हो गया था। कम्पनी के अधिकारी भी नवाब के अधिकारियों की नियुक्ति करते थे और उन पर नियंत्रण रखते थे। नवाब द्वारा निजामत के अधिकार त्यागना वस्तुतः बंगाल में ब्रिटिश राज्य की स्थापना की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम था।

इस प्रकार, स्पष्ट है कि 1765 ई. तक दीवानी तथा निजामत दोनों ही प्रकार के अधिकार कम्पनी को प्राप्त हो गये थे। इससे कम्पनी लगभग पूर्णरूप से बंगाल की स्वामी नब गई; चूँकि कम्पनी शासन प्रबन्ध की जिम्मेवारी अपने कन्धों पर उठाने के लिए तैयार नहीं थी, इसलिए उसने दीवानी अधिकार अपने पास रखे और निजामत के अधिकार अर्थात् राज-काज का काम बंगाल के नवाब के हाथों ही रहने दिया। इसके बदले में उसने 53 लाख रूपया प्रतिवर्ष नवाब को देना स्वीकार किया। शासन को इन दो भागों में बाँटकर दो विभिन्न व्यक्तियों के हाथों में दे देने के कारण ही इस शासन को द्वैध शासन या दोहरा शासन (Dual Government) के नाम से पुकारते हैं। क्लाइव की यह दोहरी व्यवस्था आगामी सात वर्ष (1765-1772) तक प्रचलित रही।

द्वैध शासन व्यवस्था का स्पष्टीकरण
क्लाइव द्वारा स्थापित दोहरी शासन प्रणाली बड़ी जटिल तथा विचित्र थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत बंगाल के शासन का समस्त कार्य नवाब के नाम पर चलता था। परन्तु वास्तव में उनकी शक्ति नाममात्र की थी और वह एक प्रकार से कम्पनी के पेंशनर थे, क्योंकि कम्पनी शासन के खर्च के लिए नवाब को एक निश्चित राशि देती थी। दूसरी ओर वास्तविक शक्ति कम्पनी के हाथों में थी। वह शासन कार्य में नवाब का निर्देशन करती थी और देश की रक्षा के लिए भी जिम्मेवार नहीं थी। इसके अतिरिक्त दीवानी अधिकारों की प्राप्ति से बंगाल की आय पर उनका पूर्ण नियंत्रण था, परन्तु वह बंगाल के शासन के लिए जिम्मेवार नहीं थी और नवाब के अधीन होने का दिखावा भी करती थी। इस प्रकार, बंगाल में एक ही साथ दो सरकारें काम करती थीं-कम्पनी की सरकार और नवाब की सरकार। इनमें कम्पनी की सरकार विदेशी थी और जिसके हाथों में राज्य वास्तविक सत्ता थी। नवाब की सरकार जो देशीय अथवा भारतीय थी और जिसे कानूनी सत्ता प्राप्त थी, परन्तु वास्तव में उसकी शक्ति नाममात्र की थी। क्लाईव की इस शासन प्रणाली को द्वैध शासन कहते हैं।

द्वैध शासन व्यवस्था की कार्यप्रणाली
कम्पनी को दीवानी तथा निजामत के अधिकार मिल गए थे, परन्तु कम्पनी के कर्मचारियों को मालगुजारी वसूल करने तथा शासन चलाने का अनुभव नहीं था। क्लाइव शासन का प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व कम्पनी के हाथों में नहीं लेना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अधिकारों का विभाजन किया। उन्होंने भारतीय अधिकारियों के माध्यं से दीवानी का काम चलाने का निश्चय किया। इस कारण उसने दो नायब दीवान की नियुक्ति की। एक बंगाल के लिए एवं दूसरा बिहार के लिए। बंगाल में मुहम्मद रजा खाँ तथा बिहार में सिताबराय को दीवान के पद पर नियुक्त किया गया। रजा खाँ का केन्द्र मुर्शिदाबाद और सिताबराय का केन्द्र पटना में रखा गया। इस प्रकार कम्पनी ने अपना उत्तरदायित्व दो भारतीय अधिकारियों पर डाल दिया। उसका उद्देश्य तो अधिक से अधिक धन प्राप्त करना था। अधिक आय को जुटाना ही इन दो नायब दीवानों कार्य था।

निजामत के अधिकार भी कम्पनी ने बंगाल के नवाब से प्राप्त कर लिए थे। इसके बदले में वह नवाब को 53 लाख रूपयि प्रतिवर्ष बंगाल का शासन कार्य चलाने के लिए देती थी। यद्यपि शासन के समस्त कार्य नवाब के नाम से किए जाते थे, तथापि वह नाममात्र का शासक था और शासन की वास्तविक शक्ति कम्पनी के हाथ में थी। नवाब आन्तरिक और बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा के लिए कम्पनी पर निर्भर था। दूसरे शब्दों में, निजामत की सर्वोच्च शक्ति कम्पनी के पास थी, परन्तु उत्तरदायित्व नवाब का था। चूँकि इस समय बंगाल का नवाब अल्पायु था, इस कारण कम्पनी ने नवाब की ओर से उसके कार्यों की देखभाल करने के लिए नायब निजाम की नियुक्ति की थी और इस पद पर मुहम्मद रजा खाँ की नियुक्ति की गई, जो कम्पनी की ओर से बंगाल का नायब दीवान था। वह कम्पनी के हाथ की कठपुतली था। अतः प्रशासकों की सभी शक्तियाँ कम्पनी के हाथों में केन्द्रीत हो गईं।

क्लाइव की इस शासन व्यवस्था को दोहारा शासन इसलिए कहते हैं कि सिद्धांत में शासन का भार कम्पनी और नवाब में विभाजित किया गया था, परन्तु कम्पनी ने व्यावहारिक रूप में उन सूबों की जिम्मेवारी अपने ऊपर नहीं ली। वास्तविक शक्ति कम्पनी के हाथों में थी, परन्तु शासन भारतीयों के हाथों था और भारतीय, कम्पनी के हाथ की कठपुतली बने हुए थे। इस प्रकार, वास्तिवक सत्ता प्राप्त होते हुए भी कम्पनी ने दूर रहकर अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया। इस प्रकार सूबों में दो सत्ताओ (एक भारतीय और दूसरी विदेशी सत्ता) की स्थाना हुई। विदेशी सत्ता वास्तविक थी, जबकि भारतीय सत्ता उसकी परछाई मात्र थी।

द्वैध शासन की व्यवस्था बंगाल, बिहार और उड़ीसा में 1765 में से 1772 ई. तक कायम रही। इसके अतिरिक्त शासन की जिम्मेवारी बंगाल के नवाब के सिर पर थी, परन्तु वह नाममात्र शासक थे। दूसरे शब्दों में, नवाब कम्पनी के हाथ का कठपुतला बन हुआ था। सम्पूर्ण प्रशासकीय शक्ति कम्पनी के हाथ में थी, परन्तु प्रत्यक्ष रूप से वह इन सूबों की शासन व्यवस्था के लिए उत्तरदायी थी।

द्वैध शासन के लाभ
क्लाइव की द्वैध शासन की व्यवस्था उसकी बुद्धिमत्ता और राजनीतिज्ञता का प्रमाण थी। यह प्रणाली उस समय कम्पनी के हितों के दृष्टिकोण से सर्वोत्तम थी। दोहरे शासन से कम्पनी को निम्नलिखित लाभ प्राप्त हुए-
(1)       कम्पनी के पास ऐसे अंग्रेज कर्माचारियों की कमी थी, जो भारतीय भाषाओं तथा रीति-रिवाजों से अच्छी प्रकार परिचित हों और जिन्हें शासन चलाने अथवा मालगुजारी वसूल करने का पर्याप्त अनुभव हो। उस समय यह आशा करना कि कम्पनी के कर्मचारी रातों-रात योग्य प्रशासक बन जाएंगे, निरर्थक था। यदि कम्पनी अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करती, तो शासन में अव्यवस्था फैल जाति। ऐसि स्थिति में कम्पनी के शासन का समस्त उत्तरदायित्व भारतीयों पर डाल दिया। ऐसा करके उसे बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। भारतीयों को प्रशासनिक अनुभव पर्याप्त मात्र में था, जिसके कारण शासन सुव्यवस्थित ढंग से चलने लगा।
(2)       इंग्लैण्ड में कम्पनी को अभी भी मूलतः एक व्यापारिक कम्पनी समझा जाता था। इसलिए क्लाइवने ब्रिटिश जनता तथा कम्पनी के संचालकों को धोखा देने के लिए बड़ी चालाकी से काम किया था। यदि इस समय वह बंगाल का शासन प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ में ले लेता तो ब्रिटिश संसद कम्पनी के मामलों में हस्तक्षेप कर सकती थी। इसके अतिरिक्त इससे कई प्रकार की अड़च नें भी पैदा हो सकती थीं।
(3)       यदि कम्पनी बंगाल के नवाब को गद्दी से हटाकर प्रांतीय शासन प्रबन्ध प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ में ले लेती, तो उसे निश्चित रूप से अन्य यूरोपियन शक्तियों, पुर्तगालियों एवं फ्रांसीसियों आदि के साथ संघर्ष करना पड़ता। ये लोग उस समय भारत के साथ व्यापार करते थे और ईष्ट इण्डिया कम्पनी के कट्टर विरोधी थी। क्लाइव ने बड़ी चतुराई से काम लेते हुए इन विदेशियों की आँखों में धूल झोंक दी। रॉबर्ट्स ने लिखा है, ब्रितानियों द्वारा खुलेआम बंगाल के शासन की बागड़ोर सम्भाल लेने का अर्थ होता, दूसरी यूरोपीय शक्तियों के साथ झगडा मोल लेना। लेकिन दोहरा शासन अत्यन्त जटिल होने से वे यूरोपियन प्रतिस्पर्द्धियों के ईर्ष्या-जन्य संघर्ष से बच गए। प्रो. एस.आर. शर्माने लिखा है, क्लाइव ने यह धोखा इसलिए बनाए रखा, जिससे कि ब्रिटिश जनता को, यूरोपीयन शक्तियों को था भारतीय देशी शासकों को वास्तविक स्थिति का पता नहीं चल सके।
(4)       कम्पनी द्वारा शासन को प्रत्यक्ष रूप से हाथ में लेने से मराठे भी भड़क सकते थे। मराठों की संयुक्त शक्ति का सामना करना कम्पनी के बस की बात नहीं थी।
(5)       पिछले सात वर्षों में कम्पनी तथा बंगाल के नवाब के बीच कई बार झगड़े हुए थे, जिसके कारण बंगाल में तीन राजनीतिक क्रांतियाँ हुई। परिणामस्वरूप तीन महत्त्वपूर्ण शासकीय परिवर्तन हुए। क्लाइव इस प्रकार के परिवर्तनों के विरूद्ध था और उन्हें रोकना चाहता था। द्वैध शासन की स्थापना से कम्पनी और नवाबों के बीच चलने वाला संघर्ष हमेशा के लिए समाप्त हो गया और बंगाल में राजनीतिक क्रांतियों का भय नहीं रहा। विशेषतः इसलिए कि नवाब को केवल 53 लाख रूपए प्रतिवर्ष पेन्शन के रूप में दिए जाते थे। यह धनराशि शासन कार्य चलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी। इसलिए वह एक विशाल सेना का आयोजन करके कम्पनी से टक्कर नहीं ले सकता था।
(6)       यद्यपि 1765 ई. तक बंगाल पर ब्रितानियों का पूर्णरूप से अधिकार हो गया, परन्तु क्लाइव ने बंगाल की जनता को अंधेरे में रखने के लिए नवाब को प्रांतीय शासन प्रबन्ध का मुखिया बनाए रखा और वास्तविक शक्ति कम्नी के हाथों में रहने दी। इस प्रकार, क्लाइव ने 1765 की क्रांति को समफलातपूर्वक छिपा लिया और भारतीयों तथा देशी राजाओं के मन में किसी प्रकार का संदेह उत्पन्न नहीं होने दिया।

द्वैध शासन व्यवस्था के दोष
बंगाल के दोहरे शासन में अनेक गम्भीर दोष विद्यमान थे, जिसके कारण शासन में अव्यवस्था फैल गई और जन-साधारण को विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। नवाब ने द्वैध शासन व्यवस्था की आलोचना करते हुए अंग्रेज रेजीडेण्ट को 24 मई, 1769 ई. को एक पत्र लिखा, बंगाल का सुन्दर देश, अब तक भारतीयों के अधीन था, तब तक प्रगतिशील और महत्त्वपूर्ण था। ब्रितानियों की अधीनता में आने के कारण उसका अधःपतन अन्तिम सीमा पर पहुँच गया। प्रो. चटर्जी इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि क्लाइव ने जो द्वैध शासन व्यवस्था लागू की थी, वह एक दूषित शाकीय यन्त्र था। इसके कारण बंगाल में पहले से भी अधिक अव्यवस्था फैल गई और जनता पर ऐसे अत्याचार ढाये गये,जिसका उदाहरण बंगाल के इतिहास में कहीं नहीं मिलता।

बंगाल की द्वैध शासन व्यवस्था के दो प्रमुख दोष निम्नलिखित थे-
(1)       दोहरे शासन का सबसे बड़ा दोष यह था कि कम्पनी के पास वास्तविक सत्ता थी, परन्तु वह शासन प्रबन्ध के लिए जिम्मेवार नहीं थी। दूसरे शब्दों में, उसने अपने कुठपतलों को शासन करने और उसका उत्तरदायित्व सम्भालने के लिए विवश कर दिया। इसके विपरीत बंगाल के नवाब को प्रान्तीय शासन प्रबन्ध सौंप दिया था उसके पास शासन कार्य चलाने के लिए आवश्यक शक्ति नहीं थी। ऐसी शासन व्यवस्था कभी भी सफल नहीं हो सकती थी, जिसमें शासन का उत्तरदायित्व उठाने वालों के हाथ में वास्तविक सत्ता न हो। द्वैध शासन व्यवस्था की इस मौलिक त्रुटि के कारण बंगाल में शीघ्र ही अव्यवस्था फैल गई। कहा जाता है कि इस व्यवस्था के दौरान चारों ओर अराजकता, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई। कैयी ने ठीक ही लिखा है कि, इसने अव्यवस्था को दुर्वव्यवस्थित कर दिया और भ्रष्टाचार को और भ्रष्ट। कम्पनी अधिक से अधिक धन वसूल करने में ही अपनी शक्ति का व्यय कर रही थी। उसने जनता की देखभाल नवाब को सौंप दी थी। इससे जनता की हालत दीन-प्रतिदिन बिगड़ती गई। के.एम. पन्निकर ने लिखा है, भारतीय इतिहास के किसी काल में भी, यहाँ तक कि तोरमान और मुहम्मद तुगलक के समय में भी, भारतीयों को एसी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ा जो कि बंगाल के निवासियों को इस द्वैध शासनकाल में झैलनी पड़ी। मुर्शिदाबाद के प्रेसीडेण्ट ने 1769 में ठीक ही लिखा था कि, यह क्षेत्र जो अत्याधिक निरंकुश और स्वेच्छारी सरकार के अन्तर्गत फला-फूला, बर्बादी की ओर आगे बढ़ रहा है।
(2)       द्वैध शासन व्यवस्था के अन्तर्गत कम्पनी ने बंगाल की रक्षा का कार्य अपने हाथ में ले लिया। इस कारण केवल कम्पनी ही सेनाएँ रख सकती थी। नवाब को सेना रखने का अधिकार नहीं था। वह केवल उतने ही सैनिक रख सकता था, जितने कि उसे शांति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए आवश्यक थे। इस प्रशासनिक व्यवस्था से नवाब की सैन्य शक्ति को गहरा आघात पहुँचा।
(3)       द्वैध शासन व्यवस्था के कारण देशी न्याय व्यवस्था बिल्कुल ही पंगु हो गई। कम्पनी के कर्मचारी बार-बार न्यायिक प्रशासन में हस्तक्षेप करते थे, इतना ही नहीं अनुचित रूप से लाभ उठाने के लिए नवाब के कर्मचारियों को डराते-धमकाते भी थे। उनके हस्तक्षे के कारण देशी जजों का निष्पक्षता और ईमानदारी से काम करना मुश्किल हो गया।
(4)       आर्थिक शोषण में इंग्लैण्ड की सरकार ने भी पीछे नहीं रही। 1767 ई. में उसने कम्पनी से 4 लाख पौण्ड का ऋण मांगा, जिसके कारण कम्पनी की आर्थि स्थिति पहले से भी अधिक दयनीय हो गई। कम्पनी ने इस रकम को एकत्रित करने के लिए भारतीय सूबों को ही चुना। बोल्ट्स के शब्दों मे, जब राष्ट्र फल के पीछे पड़ा हुआ था, कम्पनी और उसके सहोयगी पेड़ ही उखाड़ने में जुटे थे।
(5)       द्वैध शासन की व्यवस्था की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए कम्पनी के कर्मचारियों ने राजनीतिक सत्ता का दुरूपयोग कर बहुत अधिक धन कमाया। उनेके नीजि व्यापार के दोष भी चरम सीमा पर पहुँच गये थे, क्योंकि अब उन पर कोई नियंत्रण नहीं था। उन्होंने अपने दस्तकों का इतना अधिक दुरूपयोग किया कि भारतीय व्यापारियों का ब्रितानियों के मुकाबले में व्यापार करना असम्भव हो गया। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के व्यापार पर कम्पनी का एकाधिकार हो गया और भारतीय व्यापारियों को अपना पैतृक धन्ध छोडने के लिए बाध्य होना पड़ा। स्वयं क्लाइव ने कॉमन्स सभा में कहा था, कम्पनी के व्यापारी एक व्यापारी की भाँति व्यापार न करके, संप्रभु के समान व्यवहार करते थे और उन्हों ने हजारों व्यापारियों के मुँह से रोटी छीन ली थी और जो भारतीय पहले व्यापार करते थे, वे अब भीख माँगने लगे हैं।
(6)       द्वैध शासन व्यवस्था के अन्तर्गत कम्पनी के कर्मचारी व्यक्तिगत व्यापार के द्वारा धनवान होते चले गये, परन्तु कम्पनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई। कम्पनी के कर्मचारियों की धनलोलुप प्रवृत्ति के कारण व्यभिचार और बेईमानी अनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई। 18वीं शताब्दी के एक अंग्रेज कवि विलियम कोपर ने कम्पनी के अधिकारियों की धन लोलुपता का वर्णन करते हुए लिखा है,

न तो यह अच्छा है और न हो प्रशंसनीय ही, कि घर पर तो चोरों को फाँसी लगे, परन्तु वे जो डाल लेते हैं। अपनी मोटी तथा पहले भी भरी हुई थैली में, भारतीय प्रान्तों में रजवाड़ों का धन बच जाते हैं।भारतीय प्रान्तों में रजवाड़ों का धन बच जाते हैं।

परिणामस्वरूप कम्पनी की स्थिति दिन-प्रतिदिन कम होती गई। 1770 ई. तक वह स्वयं दिवालिये की स्थिति में पहुँच गई।

(7)      द्वैध शासन व्यवस्था से भारतीय व्यापार तथा उद्योगों को बहुत हानि पहुँची। विदेशी व्यापारियों को विशेष चुट दी गई, जिसके कारण भारतीय व्यापारी उनके साथ प्रतिद्वन्द्विता में नहीं टिक सके। कम्पनी की अपनी शोषण नीति के कारण बंगाल का रेशमी और सूती वस्त्र उद्योग चौपट हो गया। कम्पनी के अधिकारी तथा उनके प्रतिनिधि भारतीय जुलाहों को एक निश्चित समय में एक निश्चित प्रकार का कपड़ा बना के लिए बाध्य करते थे और अपनी इच्छानुसार उनको कम मुल्य देते थे। जिन कारीगरों ने निश्चित समय पर ब्रितानियों की माँग की पूर्ति नही की अथवा उनकी कम कीमत को लेने से इन्कार कर दिया, तो उनके अंगूठे काट दिए गए। परिणामस्वरूप वस्त्र उद्योग में लगे हुए कारीगर बंगाल को छोड़कर भाग गए। ब्रितानियों ने अपनी बेईमानी और अत्याचार से बंगाल के कपड़ा उद्योग को नष्ट कर दिया।
(8)       द्वैध शासन व्यवस्था के अन्तर्गत कृषि का भी सर्वनाश हो गया। भूमि-कर वसूली का काम अधिक से अधिक बोली लगाने वाले ठेकेदार को दिया जाता था। ठेकेदार उस भूमि से अधिक से अधिक लगान वसूल करना चाहते थे, ताकि उनको अधिक से अधिक मुनाफा प्राप्त हो सके, क्योंकि इस बात को कोई गारन्टी नहीं होती थी, कि अगले वर्ष उन्हें पुनः लगान वसूली का काम मिल जाएगा। कम्पनी अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए ठेकेदारों से अधिक से अधिक माँग करती थी। इस प्रकार कम्पनी और ठेकेदारों को बढ़ती हुई लगान की माँग के कारण किसानों का शोषण बढ़ता गया।

डॉ. एम.एस. जैन ने लिखा है कि कम्पनी को दीवानी देने से पूर्व बंगाल व बिहार से 80 लाख रूपया भू-राजस्व प्राप्त होता था, वहाँ 1766-67 में, 2,24,67,500 रूपये ही भू-राजस्व के प्राप्त हुए। स्पष्ट है कि कृषकों की कमर टूट गई। कम्पनी और ठेकेदारों दोनों की ही भूमि की उन्नति में रूची नहीं थी। अतः किसानों की स्थिति दयनीय हो गई। अनेक किसान खेती छोड़कर भाग गए और चोर बन गए तथा खेती की योग्य भूमि जंगल में परिवर्तित हो गई। 1770 ई. में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। इसमें बंगाली की एक तिहाई जनता समाप्त हो गई। इस समय भी सरकारी कर्मचारियों ने लगान माफ करने के स्थान पर दुगुना कर दिया। इतना ही नहीं, किसानों के घरों का सामान नीलाम करवा दिया, जिससे वे बेघरबार हो गए। दुर्भिक्ष की विभीशिका का वर्णन करते हुए सर जॉन ने लिखा है--

वह प्रचन्ड विभीषिका दुर्भिक्ष की
दिग्भ्रमित जन देख मृत, मृतपाय को,
गीदड़ों की चीख, गृद्धों की विषवरम,
गुँजता था स्वर भयानक कुक्कुरों का, चिल-चिलाती घूप में जो,
अनाक्रान्त शिकार हित संघर्षरत थे।

मुर्शिदाबाद निवाकी कम्पनी रैजीडेन्ट श्री बेचर ने कृषकों की दयनीय स्थिति पर दुःख व्यक्त करते हुए 1769 ई. में लिखा, जब में कम्पनी ने बंगाल की दीवानी को सम्भाला है, इस प्रदेश के लोगों की दशा पहले से भी खराब हो गई है। वह देश जो स्वेच्छारी शासकों के अधीन भी समृद्धशाली था, अब विनाश की ओर जा रहा है। लार्ड कार्नवालिस ने इंग्लैण्ड की संसद में द्वैध शासन व्यवस्था के बारे में कहा था, मैं पूर्ण विश्वास के साथ इस मता का हूँ कि विश्व में कोई ऐसी सभ्य सरकार नहीं रही, जो इतनी भ्रष्ट, विश्वासघाती और लोभी हो, जितनी कि भारत में कम्पनी की सरकार थी। वेरेलस्ट के शब्दों में, ऐसी विभाजित और जटिल व्यवस्था ने शोषण और षड्यन्त्र को जन्म दिया जैसा पहले कभी नहीं हुआ था।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि द्वैध शासन व्यवस्था में कई दोष विद्यमान थे। इसलिए जब 1722 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज अंग्रेज कम्पनी का गवर्नर बनकर बंगाल आया, तो उसे दोहरे शासन को समाप्त करने के लिए स्पष्ट आदेश दिए गये। अतः उसने भारत आते ही इस व्यवस्था को समाप्त करने का आदेश दिया। इस प्रकार द्वैध शासन व्यवस्था का 1772 ई. में अन्त हुआ।


रेग्यूलेटिंग एक्ट (1773 ई.)
18 मई, 1773 ई. को लार्ड नार्थ ने कॉमन्स सभा में ईस्ट इंण्डिया कम्पनी रेग्यूलेटिंग बिल प्रस्तुत किया, जिसे कॉमन्स सभा ने 10 जून को और लार्ड सभा ने 19 जून को पास कर दिया। यह 1773 ई. के रेग्यूलेटिंग एक्ट के नाम से प्रसिद्ध है। इस एक्ट का मुख्य उद्देश्य कम्पनी के संविधान तथा उसके भारतीय प्रशासन में सुधार लाना था। सी.एल.आनन्द ने इस सम्बन्ध में लिखा है, यद्यपि इससे कम्पनी की शासन-प्रणाली की बुराइयाँ बूरी तरह दूर नहीं हो पाई, फिर भी उस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। इस एक्ट में कम्पनी की दिशा में आवश्यक सुधार हुआ। इतना ही नहीं, यह एक्ट एंग्लो भारतीय प्रशासनिक ढाँचे की आधारशिला भी बना रहा।

रेग्यूलेटिंग एक्ट के पारित होने के कारण
ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा दीवानी की प्राप्ति और कुछ क्षेत्रों पर अधिकार के कारण इंग्लैण्ड की सरकार ने भारतीय मामलों में विशेष रूचि लेनी शुरू कर दी। पार्लियामेन्ट के सदस्यों ने यह अनुभव किया कि कम्पनी का शासन बहुत दोषपूर्ण है। अतः उसके तथा राष्ट्र के हितों को ध्यान में रखते हुए उस पर संसद का नियंत्रण स्थापित करना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिए लार्ड नार्थ की सरकार ने 19 जून, 1773 ई. को ईस्ट इण्डिया कम्पनी रेग्यूलेटिंग एक्ट पास किया। इस एक्ट के बार में जी.एन. सिंह ने लिखा है, यह एक्ट महान संवैधानिक महत्ता का है, क्योंकि इसने पहली बार संसद को यह अधिकार दिया कि वह जिस तरह की चाहे, उस तरह की सरकार स्थापित करने का आदेश भारत में दे सकती थी, जो अधिकार अभी तक कम्पनी का बना हुआ था और क्योंकि संसदीय संविधियों की लम्बी परम्पराओं में से प्रथम है, जिसने भारत में सरकार का स्वरूप बदल दिया। रेग्यूलेटिंग एक्ट के पारित होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे--
(1)       कम्पनी का भारतीय प्रदेशों पर अधिकार और संविधानिक कठिनाइयाँ- ईस्ट इण्डिया कम्पनी मौलिक रूप से एक व्यापारिक संस्था थी, लेकिन प्लासी और बक्सर के युद्धों में विजय प्राप्त होने के परिणामस्वरूप बंगाल, बिहार और उड़ीसा में उसका राज्य स्थापित हो गया था। दूसरे शब्दो में, वह इन सूबों की वास्तविक शासक बन गई थी। ब्रिटिश कानून के अनुसार कोई भी प्राइवेट संस्था या व्यक्ति ब्रिटिश सम्राट की आज्ञा के बिना किसी विदेशी भूभाग पर अधिकार नहीं कर सकता था। अतः कम्पनी के क्षेत्राधिकार ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष एक अनोखा तथा विरोधी प्रश्न खडा कर दिया। इस संवैधानिक समस्या को हल करने के लिए दो ही उपाय थे-या तो ब्रिटिश सरकार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अपने अधिकार में ले ले या कम्पनी को अपने नियंत्रण में पूर्णतया मुक्त कर दे। राजनीतिक दृष्टिकोण से ये दोनों ही मार्ग त्रुटिपूर्ण थे। यदि ब्रिटिश सरकार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अपने अधिकार में ले लेती, तो इससे कोई प्रकार की राजनीतिक उलझनें उत्पन्न हो सकती थीं। विशेषतया इसलिए कि कम्पनी के अधिकार यह तर्क दने लगे थे कि उन्होंने मुगल सम्राट से बंगाल, बिहार और उड़ीसा आदि प्रदेशों की केवल दीवानी ही प्राप्त की है। इसके अतिरिक्त कम्पनी इन प्रदेशों का शासन मुगल सम्राट के दीवान की हैसियत से कार्य करना उसके सम्मान के विरूद्ध था। कम्पनी के निजी प्रदेशों पर अधिकार करना उस समय की सम्पत्ति सम्बन्धी परम्परा के भी प्रतिकूल था।

ईस्ट इण्टिया कम्पनी एक साधारण कम्पनी न होकर पूर्वी एशिया के ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधित्व करती ती। बर्क के शब्दों में, ईस्ट इण्डिया कम्पनी ब्रिटिश वाणिज्य के विस्तार के लिए बनाई गई एक व्यवसायी संस्था (कम्पनी)मात्र प्रतीत नहीं होत थी, अपितु वस्तुतः इस राज्य की पूर्व में भेजी गई सम्पूर्ण शक्ति और प्रभुसत्ता का प्रत्यायोजन (Delegation) था। कुव्यवस्था के एक साम्राज्यवादी देश के नाम से इंग्लैण्ड की बदनामी होने का भी भय था। अतः इस संवैधानिक समस्या को ब्रिटिश सरकार ने एक एक्ट के द्वारा सुलझना ही उचित समझा।

(2)       बंगाल की जनता की दुर्दशा- द्वैध शासन व्यवस्था के कारण बंगाल में शासकीय अव्यवस्था फैल गई और कम्पनी के कर्मचारियों ने लूट-मार आरम्भ कर दी, जिसके कारण वहाँ के लोगों को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा और उनकी स्थिति दयनीय हो गई। अलफ्रेड लायल लिखते हैं, मजिस्ट्रेसी, पुलिस, राजस्व अधिकार भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं पर आधारित थे और विरोधी हितों के काम कर रहे थे। वे एक शासन के अधीन नहीं थे, तथा कुशासन के लिए एक-दूसरे से ईर्ष्या करते थे। देश में कोई कानून नहीं था तथा न्याय नाममात्र का था। रिचर्ड बेचर ने लिखा है, अंग्रेजों को यह जानकर दुःख होगा कि जब से कम्पनी के पास दीवानी अधिकार आए है, बंगाल के लोगों की दशा पहले की अपेक्षा अधिका खराब हो गई है। सर ल्यूयिश ने लिखा है, सन् 1765 ई. से लेकर 1772 ई. तक ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन इतना दोषपूर्ण एवं भ्रष्ट रहा है कि संसार-भर की सभ्य सरकारों में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। उस समय अंग्रेजी नवाबों ने बहुत अधिक भ्रष्टाचार फैला रखा था। ऐसे समय में 1770 ई. में बंगाल मे एक भयंकर अकाल पड़ा, जिसे कम्पनी सम्भाल नहीं सकी। कीथ के अनुसार, इस दुर्भिक्ष में बंगाल की 1/5 जनसंख्या नष्ट हो गई, परन्तु आबादी के इधर-उधर भाग जाने के कारण कम्पनी को जो घाटा हुआ, उसकी पूर्ति कम्पनी ने दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं पर दाम बढ़ाकर और टैक्स बढ़ाकर की। लैकी के अनुसार, इसके पूर्व भारतीयों को इतने बुद्धिमत्तापूर्ण, खोजपूर्ण तथा कठोर अत्याचारपूर्ण अनुभव नहीं हुए थे जो जिले धनी आबादी वाले और समृद्धिशाली थे, अन्ततः वे सब के सब पूर्णरूप से जनसंख्या रहित कर दिए गए। चेथम के अनुसार, भारत में आंतरिक विषमताओं का इतना अधिक विस्तार हुआ, जितना की पृथ्वी एवं आकाश का अन्तर। अतः बंगाल की जनता बहुत दुःखी हो गई और ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप अनिवार्य हो गया।

(3)       द्वैध शासन व्यवस्था- 1765 ई. में लार्ड क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था स्थापित की
थी। यह व्यवस्था बहुत दोषपूर्ण थी, क्योंकि इसमें कम्पनी तथा नवाब दोनों में से किसी ने भी शासन प्रबन्ध की जिम्मेवारी अपने ऊपर नहीं ली थी। परिणामस्वरूप, बंगाल में अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गई और कर्मचारियों ने लूट-मार प्रारम्भ कर दी। होरेस वालपोल और लूट का ऐसा दृश्य हमारे सामने खोला गाय है, जिसे देखकर हम काँप उठते हैं। सोने के लोभ में हम स्पेनी हैं। उसकी प्राप्ति के सूक्ष्म तरीकों में हम दक्ष हैं। वेरस्ट ने अपनी पुस्तक गवर्नर ऑफ बंगाल (1767-69) में लिखा है कि, द्वैध शासन के परिणामस्वरूप बंगाल में अत्याचारी शासन कायम हो गया। ल्यूकस ने लिखा है, 1765 से लेकर 1722 ई. तक ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन इतना दूषित तथा भ्रष्ट रहा कि संसार की सभ्य सरकारों में उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता है। संक्षेप में, द्वैध शासन के परिणामस्वरूप बंगाल में अराजकात और अव्यवस्था फैल गई थी। कुशासन अपनी चरम सीमा पर था, व्यभिचार का बोल-बाला था। दमन और शोषण आम बात थी। ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार के लिए कम्पनी के कार्यों में हस्तक्षेप करना अनिवार्य हो गया था।

(4)       कम्पनी के कर्मचारियों द्वारा शोषण और धन जमा करना- भारत में काम करने वाले कम्पनी के कर्मचारियों के वेतन कम थे, लेकिन उन्हें निजी व्यापार करने का अधिकार था। अतः वे कुछ रिश्वत लेकर देशी व्यापारियों का माल अपने नाम से मँगवा लेते थे, जिससे देशी व्यापारियों को चुँगी नहीं देनी पड़ती थी। कम्पनी के कर्मचारी देशी व्यापारियों तथा जनता को कोई काम निकालने के लिए भेंट की खूब स्वीकार करते थे। इस प्रकार, कम्पनी के कर्मचारी अनुचित उपायों से धन संग्रह करके बहुत धनवान बन गई थे और इंग्लैण्ड जाकर भारत के नवाबों की तरह विलासितापूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। इसलिए कम्पनी के इन कर्मचारियों को ब्रिटिश जनता चिढ़ाने के लिए अंग्रेजी नवाब कहती थी।

कम्पनी के कर्मचारी बहुत निर्दयी तथा लालची थे। वे धन कमाने के लिए अनुचित उपयों का सहारा लेते थे। वे गरीब भारतीयों से न केवल जबरदस्ती रूपया वसूल किया करते थे, अपितु निर्दोष प्रजा पर बहुत अत्यचार भी करते थे. प्रत्येक कर्मचारी का यह उद्देश्य था कि वह भारतीयों से अधिक से अधिक धन लूटकर जल्द से जल्द इंग्लैण्ड चला जाए। जी.एन. सिंह द्वारा उद्धूत लैकी के शब्दों में, भारतीयों ने इनता चालाक और दृढ अत्याचारी शासक इसके पूर्व कभी नहीं देखा था। ऐसा देखा जाता था कि अंग्रेज व्यापारियों के आ जाने पर गाँव खाली हो जाते थे, दुकानें बन्द हो जाती थीं और सड़कें भयभीत शरणार्थियों से भर जाती थीं।

1770 ईं. में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा, जिसके कारण लोगों के कष्ट बढ़ गए और जनता की स्थिति और दयनीय हो गई। पुन्निया ने लिखा है कि, कम्पनी के कर्मचारी इतने निर्दय और निर्लज्ज व लोभी थे कि उन्होंने गरीब जनता के कष्टों से भी लाभ उठाया और अकाल की दशाओं का उपयोग नीजि अर्थ प्राप्ति के लिए किया। जी.एन. सिंह ने लिखा है, कम्पनी के कर्मचारी इतने निर्लज्ज तथा लालची थे कि धन बटोरते समय वे अकाल पीड़ित तथा दरिद्र लोगों की विपत्तियों की भी परवाह नहीं करते थे।

कम्पनी के ये कर्मचारी अपार धन लेकर इंग्लैण्ड में संसद के निर्वाचन में व्यय करते थे और वहाँ के राजनीतिक वातावरण को दूषिक करते थे। मैकला ने लिखा है, मानवीय मन उनके धन बटरोने के उपायों से काँप उठता था, जबकि मितव्ययी लोग उनके अपव्यय से आश्चर्यचकित रह जाते थे। इसलिए ब्रिटिश जनता उनसे ईर्ष्या करती थी और कम्पनी के मामलों की नीतियों पर कुछ नियंत्रण करना आवश्यक समझा।

(5)       कम्पनी की पराजय-
1769 ई. में मैसूर के शासक हैदरअली ने कम्पनी को पराजित कर दिया। उसने मद्रास सरकार से अपनी शर्तें बलपूर्वक मनवा लीं। इस पराजय से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा। अतः इंग्लैण्ड की सरकार और वहाँ की जनता ने कम्पनी की नीतियों पर कुछ नियंत्रण करना आवश्यक समझा।

(6)       कम्पनी का दिवालियापन-
1765 ई. में बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त करते समय क्लाइव ने यह अनुमान लगाया था कि बंगाल का कुल राजस्व 40 लाख पौण्ड होगा और खर्च आदि निकालकर कम्पनी को 1,65,000 पौण्ड की वार्षिक बचत होगी। इससे उत्साहित होकर कम्पनी के अधिकारियों ने 1766 ई. में लाभांश की दर (Dividend) 6 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 प्रतिशत और 1767 में 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 121/2 प्रतिशत कर दी। पार्लियामेन्ट के सदस्य भी कम्पनी के धन-धान्य का कुछ भाग प्राप्त करना चाहते थे। अतः ब्रिटिश सरकार और कम्पनी के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार कम्पनी ने ब्रिटिश सरकार को भारतीय प्रदेशों पर अधिकार जमाये रखने के बदले में चार लाख पौण्ड वार्षिक खिराज के रूप में देना स्वीकार कर लिया। ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने यह रकम कुछ वर्षों तक अदा की, परन्तु बाद में उसकी स्थिति खराब हो गई कि इस रकम को प्रतिवर्ष अदा नहीं कर सकी। यहाँ तक कि उसने 1773 ई. में ब्रिटिश सरकार से 10 लाख पौण्ड के ऋण की प्रार्थना की। इससे सरकार को मौका मिला कि वह उससे कार्यों की जाँच-पड़ताल करे।

(7)       1818 ई. के संवैधानिक सुधारों पर रिपोर्ट-
रेग्यूलेटिंग एक्ट, 1773 ई. के कारणों पर प्रकाश डालते हुए संवैधानिक सुधार विषयक रिपोर्ट में कहा गया था कि, कम्पनी का दिवालायान संसदीय हस्तक्षेप का तात्कालिक कारण था, लेकिन अधिक महत्त्वपूर्ण कारण अंग्रेजों में बढ़ती हुई भावना थी कि राष्ट्र सुदूर देश में शासन करने के प्रयोग की सफलता का पूर्ण उत्तदायित्व अने ऊपर लें और यह देखें के विदेशियों पर शासन समुचित ढंग से हो रहा है।

(8)       संसदीय जाँच और लार्ड नार्थ का रेल्गूयलेटिंग बिल-
ब्रिटिश सरकार ने ऊपर लिखे कारणों से विवश होकर कम्पनी के कार्यों की जाँच के लिए दो संसदीय समितियाँ नियुक्त कीं, इनमें से एक कमेटी और सीक्रेट कमेटी थी। सलेक्ट कमेटी ने 12 और सीक्रेट कमेटी ने 6 रिपोर्ट पेश की, जिनमें कम्पनी प्रशासन की बहुत अधिक आलोचना की गई थी। इन रिपोर्टों के आधार पर प्रधानमंत्री लार्ड नार्थ ने कम्पनी के मामलों को नियमित करने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी बिल तैयार किया और 18 मई, 1773 ई. को ब्रिटिश संसद के सामने रखा।

बिल को पेश करते समय लार्ड नार्थ ने संसद सदस्यों को सम्बोधित करते हुए कहा था, मेरे बिल की प्रत्येक धारा का उद्देश्य कम्पनी के शासन को सुदृढ़, सुव्यवस्थित और सुनिश्चित बनाना है और ऐसा केवल कम्पनी के भले के लिए ही नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भी अति आवश्यक है। एडमण्ड बर्क ने कम्पनी के कार्यों की हिमायत करते हुए इस बिल की कटु आलोचना की। उसने इस सम्बन्ध में यह शब्द कहे, ब्रिटिश सरकार का कम्पनी के कार्यों में हस्तक्षेप नीति विरूद्ध, विवेकहीन होने के साथ-साथ देश की न्यायसंगता तथा विधान के भी प्रतिकुल है। इसके अतिरिक्त यह बिल राष्ट्र द्वारा दिए गए अधिकार, न्याय, परम्परा और राष्ट्र के प्रति जनता के विश्वास पर आधात है।

परन्तु ब्रिटिश संसद ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और बहुत अधिक बहुतमत से इस बिल को पास कर दिया। बिल ास होने काब रेग्यूलेटिंग एक्ट कहलाया। रेग्यूलेटिंग एक्ट के अथिरिक्त एक और एक्ट पास किया गया, जिसके अनुसार कम्पनी को 4 प्रतिशत वार्षिक व्याज की दर से 14 लाख पौण्ड ऋण देने की व्यवस्था की गई और उसे 6 प्रतिशत से अधिक लामांश-दर देने की मनाही कर दी गई। संसद ने कम्पनी से 4 लाख पौण्ड वार्षिक की धनराशि भी लेनी बन्द कर दी।   

रेग्यूलेटिंग एक्ट की मुख्य ााराएँ उपबन

प्रेसीडेन्सियों का शासन- 1773 ई. के पूर्व बंगाल, मद्रास और बम्बई की प्रेसीडेन्सियाँ एक-दूसरे से स्वतंत्र थीं। इस एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर को भारत का गवर्नर जनरल बा दिया गया और बम्बई तथा मद्रास की प्रेसीडेन्सियों को उसके अधीन कर दिया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल को बम्बई और मद्रास की सरकारों काम-काज पर निगारनी रखने तथा आवश्यकतानुसार उनको हुक्म देने का अधिकार दिया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल की अनुमित के बिना बम्बई और मद्रास की प्रेसीडेन्सियों को किसी भी शक्ति के साथ युद्ध एवं सन्धि करने का अधिकार नहीं थाय वह आवश्यकता पड़ने पर बम्बई और मद्रास के गवर्नर तथा उसकी कौंसिल को निलम्बित या मुअत्तिल कर सकता था।

गवर्नर जनरल की परिषद् की स्थापना-
गर्वनर जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद् की स्थापना कि गई। इस एक्ट के वारेन हेस्टिंग्ज को गर्वनर जनरल का पद प्रदान किया गया और परिषद् के चार अन्य सदस्यों के लिए बारवेल, फ्रांसिस, क्लेवरिंग तथा मॉनसन आदि के नामों का उल्लेख किया गया था। परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया, परन्तु संचालक मण्डल की सिफारिश पर सम्राट द्वारा किसी भी समय उन्हें हटाया जा सकता था। परिषद् के रिक्त स्थानों की पूर्ति का अधिकार संचालक मण्डल को दे दिया गया।

परिषद् की कार्यविधि के सम्बन्ध में यह नियम बनाया गया था कि इसमें प्रस्तुत होने वाले मामलों पर निर्णय बहुमत के आधार पर होगों। गवर्नर जनरल को अपनी परिषद् के फैसले को मानना पड़ता था। वह अपनी परिषद् के फैसलों का उल्लंघन नहीं कर सकता था। गवर्नर जनरल केवल उसी समय अनपा निर्णायक मत दे सकता, जबकि परिषद् के सदस्यों के मत दो बराबर भागों में बँट जाएंगे। चूँकि परिषद् के सदस्यों की संख्या चार थी, इसलिए यदि तीन सदस्य गवर्नर जनरल के विरूद्ध संगठित हो जाते तो वे उसकी इच्छा के खिलाफ निर्णल लेकर मनमान कर सकते थे और वह बुहत के निर्णय की उपेक्षा नहीं कर सकता था। गवर्नर जनरल का वार्षिक वेतन 25000 पौण्ड तथा परिषद् के प्रत्येक सदस्य का वेतन 10000 पौण्ड निर्धारित किया गया।

कानून बनाने का अधिकार-
गवर्नर जनलर और उसकी परिषद् को कम्पनी के तमाम प्रदेशों के लिए नियम और अध्यादेश बनाने का अधिकार दिया गया, किन्तु उन्हें लागू करने से पूर्व अंग्रेज सरकार की अनुमति प्राप्त कनरा आवश्यक कर दिया गया। ब्रिटिश सम्राट और उसकी कौंसिल को इन अध्यादेशों तथा नियमों को रद्द करने का अधिकार था।

ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर नियंत्रण बढ़ाना-
कम्पनी को ब्रिटिश सम्राट के पूर्ण नियंत्रण में ले लिया गया। कम्पनी के कर्मचारियों, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तथा समिति के सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को प्राप्त हुआ।

कम्पनी के शासन पर संसदीय नियंत्रण स्थापित करने के लिए इस एक्ट द्वारा यह भी निश्चित कर दिया गया कि भारत के राजस्व से सम्बन्धित समस्त मामलों की रिपोर्ट कम्पनी के डाइरेक्ट ब्रिटिश वित्त विभाग के अध्यक्ष के समक्ष प्रस्तुत करेंगे और सैनिक तथा राजनीतिक कार्यों की रिपोर्ट सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के समक्ष रखेंगे। इस प्रकार, ब्रिटिश संसद को एक व्यक्तिगत निगम के मामलें में हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया गया।

कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थिति शासकीय व्यवस्था में परिवर्तन-
पहले उन व्यक्तियों को कम्पनी के संचालकों (डायरेक्टर्स) को चुनने का अधिकार था, जिनके पास कम्पनी के 500 पौण्ड के शेयर थे। परन्तु इस एक्ट के अनुसार यह निश्चित कर दिया गया कि कम्पनी के संचालकों के चुनाव में वही मत देने का अधिकारी होगा, जिसके पास एक हाजर पौण्ड के शेयर होंगे। जिन व्यक्तियों के पास 3, 6 व 10 हजार पौण्ड मूल्य के शेयर थे, उन्हें क्रमशः 2, 3 और 4 मत देने का अधिकार दिया गया। डायरेक्टरों की अवधि पहले एक वर्ष थी, अब चार वर्ष कर दी गई और साथ ही संचालक मण्डल (Court of Dirfectors) के एक चौथाई सदस्यों को प्रति वर्ष रिटायर होने की व्यवस्था कर दी गई। इस एक्ट में यह भी निश्चित कर दिया गया कि एक ही सदस्य को दुबारा चुने जाने के पूर्व एक वर्ष का अवकाश आवश्यक होगा।

बंगाल में सुप्रीटकोर्ट अथवा सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना-
इंग्लैण्ड के सम्राट को 1773 ई. के एक्ट के अनुसार फोर्ट विलियम के स्थान पर सुप्रीम कोर्ट ऑफ जुडिकेचर नामक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना का अधिकार दिया गया। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य 3 न्यायाधीश थे। न्यायाधीशों की नियुक्ति इंग्लैण्ड के सम्राट के द्वारा की जाती थी, वही उन्हें पदच्युत भी कर सकता था। मुख्य न्यायाधीश के पद के लिए सर एलिंग इम्पे के नाम का उल्लेख किया गया था। मुख्य न्यायाधीश का वार्षिक वेतन 8,000 पौण्ड और अन्य न्यायाधीशों का 6,000 पौण्ड निर्धारित किया गया।

सुप्रीम कोर्ट को कम्पनी के क्षेत्राधिकार में रहने वाले अंग्रेजों और कम्पनी के कर्मचारियों के दीवानी, फौजदारी, धार्मिक और जल सेना सम्बन्धी मुकदमें सुनने का अधिकार दिया गया। इसके फौजदारी क्षेत्राधिकार से गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् के सदस्य बाहर थे। यदि वे कोई अपराध करतें, तो इंग्लैण्ड में सम्राट के न्यायालयों में उनकी सुनावई तथा दण्ड देने की व्यवस्था की गई।

गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् द्वारा निर्मित सभी नियमों, अध्यादेशों तथा कानूनों की स्वीकृति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आवश्यक थी। इसके लिए हर कानून और न्यायालय में रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ता था अर्थात् सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी उन कानूनों और निर्णयों को लागू करने से पहले लेना आवश्यक था। न्यायालय में अंग्रेज जूरी की व्यवस्था की गई थी। इसके निर्णय के विरूद्ध परिषद् सम्राट के पास अपील की जा सकती थी।

उच्च अधिकारियों का नियंत्रण-
इस एक्ट के अनुसार कम्पनी के उच्च पदाधिकारियों को अच्छे वेतन देने की व्यवस्था की गई, जिससे कि वे घूँसखोरी या भ्रष्टाचार की ओर न झुंकें। इतना हीं नहीं, उन्हें भारतीय राजाओं तथा लोगों से रिश्वत या भेंट लेने की मनाही कर दी गई। कम्पनी के कर्मचारियों के निजी व्यापार पर कठोर नियंत्रण स्थापित किय गया तथा निजी व्यापार करना दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया गया। गवर्नर जनरल, परिषद् के सदस्य और सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीशों को निजी व्यापार करने से रोक दिया गया। अपराधियों को कड़ा आर्थिक दण्ड देने की व्यवस्था की गई। सार्वजनिक सम्पत्ति का गबन करने वाले और कम्पनी को धोखा देने वालों को जुर्माना और सजा देने की व्यवस्था की गई।


रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोष
रेग्यूलेटिंग एक्ट का उद्देश्य कम्पनी के संविधान तथा उसके भारतीय प्रशासन में आवश्यक सुधार करना था अर्थात् इसका उद्देश्य उस बुराइयों को दूर करना था, जो कम्पनी के शासन में आ गई थीं। लार्ड नार्थ ने संसद में बिल पेश करते समय स्वयं कहा था, मेरे इस बिल की प्रत्येक धारा का उद्देश्य कम्पनी के प्रशासन को सुदृढ़, सुव्यवस्थित तथा सुनिश्चित बनाना है। अतः इस एक्ट का उद्देश्य स्तुति योग्य था। लार्ड चाथम के शब्दों में, इसका उद्देश्य कम्पनी के शासन का सुधार था।

इस एक्ट में अनेक दोष थे, जिसके कारण कम्पनी का शासन सुचारू रूप से संचालित नहीं हो सका। इसके पारित होने के पश्चात् हाउस ऑफ कॉमन्स के स्पीकर ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा था, यह कानून एक कठिन समस्या को हल करने का सच्च प्रयत्न था, लेकिन सुधार लेने के तरीके में पार्लियामेन्ट ने जल्दबाजी से काम लिया और लोगों ने असंयम से। वास्तव में जल्दबाजी में यह एक्ट पारित किया गया था, जिसके कारण इसमें अनेक दोष रह गए थे। 1773 ई. के रेग्युलेटिंग एक्ट को विद्वानों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखा है। बाउटन राउज के शब्दों में, इस अधिनियम का उद्देश्य उत्तम था, परन्तु इसके द्वारा जिस पद्धति की स्थापना की गई थी वह त्रुटिपूर्ण थी।

थॉमसन और गैरेट के मतानुसार, यह एक्ट असामयिक था और इसकी रचना करते समय बंगाल की परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखा गया था। इसकी वाक्य-रचना भी दोषपूर्ण तथा अस्पष्ट थी, जिसके कारण इसके द्वारा स्थापित की गई शासकीय संस्थाओं में झगड़े होने अनिवार्य थे। पुन्निया के शब्दों में, रेग्यूलेटिंग एक्ट भारतीय मामलों के विषय में अपने ढंग का पहला अधिनियम था, इसलिए इसमें जो त्रुटियाँ रहीं, उसका प्रमुख कारण इसके बनाने वालों की अनुभव शून्यता थी। रॉबर्ट्स ने इसे, एक अधूरा उपाय, जिसमें कई बातें अनर्थकारी रूप से अस्पष्ट थीं, बताकर इसकी निन्दा की। डोडेविल के शब्दों में, यह विरोधाभासों और अनभिज्ञता से भरा हुआ था।

श्री जी.एन. सिंह ने इसके बारे में लिखा है, इसकी अपूर्णता का मुख्य कारण यह था कि संसद के सामने जो समस्या हल करने की थी, वह नये ही ढंग की थी। वह अंग्रेजों का सौभाग्य था कि इसकी अनेक और गम्भीर त्रुटियाँ घातक सिद्ध नहीं हुई। 1818 के भारतीय संवैधानिक सुधारों की रिपोर्ट में इस एक्ट की आलोचना इन शब्दों में की गई, इसके (1773 के अधिनियम के) द्वारा एक ऐसा महाराज्यपाल बनाया गया, जो अपनी ही परिषद् के सम्मुख अशक्त थे, एक ऐसी कार्यपालिका बनाई गई, जो सर्वोच्च न्यायाल के सम्मुख अशक्त थी और यह सर्वोच्च-न्यायालय देश की शांति और कल्याण की जिम्मेदारी से मुक्त था...यह व्यवस्था एक महान् व्यक्ति की प्रतिभा और धैर्य के कारण ही काम दे पाई। वस्तुतः इन एक्ट में अनेक दोष रह गए थे, जो कि निम्नलिखित हैं-

गर्वनर जनरल का परिषद् की दया पर निर्भर होना-
रेग्यूलेटिंग एक्ट का प्रथम दोष यह था कि गवर्नर जनरल को अपनी परिषद् में बहुमत द्वारा लिए गए निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था अर्थात् उस निर्णय को मानने के लिए वह बाध्य था। कौंसिल के चार सदस्यों में से तीन सदस्य हेस्टिंग्स के विरोधी थे, जो उसे शासन कार्य में सहयोग़ देने पर तुले हुए थे। बारवैल के अनुसार भारत में आने से पूर्व ही फ्रांसिस, क्लेवरिंग और मॉनसर गवर्नर जनरल के शासन के बार में अच्छी राय नहीं रखते थे और फ्रांसिस स्वयं गवर्नर जनरल बनने का महत्त्वाकांक्षी था। अतः इन तीनों व्यक्तियों ने भारत पहुँचने के पश्चात् शीघ्र ही हेस्टिंग्स के विरूद्ध एक गुट बना लिया और शासन कार्य में बाधा डालने लगे। बारवैल के अनुसार, तीनों कौंसिलों ने प्रारम्भ से ही पूर्व से निश्चित तथा पूर्व नियोजित ढंग से विरोध प्रारम्भ कर दिया।

यही कारण था कि हेस्टिंग्स जो कार्य करना चाहता था, वे नहीं हो सके और जो-जो कार्य वह नहीं करना चाहता था, उन्हें करने के लिए विवश होना पड़ा। उन तीन परिषद् सदस्यों का विरोध इनता धृष्टतापूर्ण तथा अनमनीय था कि, 1776 ई. में हेस्टिंग्स को विवश होकर त्याग-पत्र देने की बात गम्भीरतापूर्वक सोचनी पड़ी। वारेन हेस्टिंग्स के शब्दों में, मेरी स्थिति सचमुच कष्टदायी और अपमानजक है, मेरे पास एक्ट के कानून के अन्तर्गत कोई अधिकार नहीं, मेरी जगह पर काम करने वाले मेरे जैसे चरित्र वाले व्यक्ति को कोई आदर प्राप्त नहीं और मुझे उस उत्तरदायित्व के लिए, भी जिम्मेदारी लेनी पड़ती है, जिसको में स्वयं नहीं चाहता हूँ। लॉयल ने लिखा है, गवर्नर जनरल को एकदम प्रभावहीन बना दिया था। उसकी वैदेशिक नीति को कुसंगत बना दिया था तथा वारेन हेस्टिंग्स और पार्षदों के बीच संघर्ष पैदा कर दिया था।

एक्ट के इस गम्भीर दोष के कारण गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल के विरोधी सदस्यों के बीच चार वर्ष तक संघर्ष चलता रहा, जो शासन कार्य के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। पी.ई. रॉबर्टस् के शब्दों में, सर्वोच्च कार्यालय में इस दीर्घकालीन तथा प्रबल संघर्ष के कारण ब्रिटिश सत्ता तथा कम्पनी के भारतीय प्रशासन को गहरी चोट लगी।

गवर्नर जनरल का बम्बई तथा मद्रास पर अपूर्ण नियंत्रण-
इस एक्ट द्वारा बम्बई तथा मद्रास की सरकारों पर गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल का पूर्ण नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया। इसका कारण यह था कि एक्ट की धारा IX के अनुसार कुछ विकट परिस्थितियों में बम्बई तथा मद्रास की सरकारों को गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् की आज्ञा लिए बिना ही भारतीय शासकों के साथ युद्ध अथवा सन्धि करने का अधिकार दिया गया था। बम्बई तथा मद्रास की सरकार ने इस अधिकार का दुरूपयोग किया और विकट परिस्थितियो का बहाना बनाकर बंगाल के गवर्नर जनरल को बिना सूचना दिए मराठों और हैदरअली के साथ युद्ध लड़े। इन युद्धों के परिणामस्वरूप जन तथा धन की हानि हुई और कम्पनी सरकार की प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचा। अन्य मामलों में भी बम्बई तथा मद्रास की सरकारें कार्य करने के लिए स्वतंत्र थीं। इससे कालान्तर में कम्पनी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

गवर्नर जनरल तथा सुप्रीम कोर्ट का झगड़ा-
गवर्नर जनरल और सर्वोच्च न्यायालय में सर्वोच्च कौन था। इसकी कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई थी। इस क्षेत्रीय अस्पष्टता के कारण दोनों में अधिकार क्षेत्र के लिए प्रायः झगड़ा हो जाता था। एक ओर, गवर्नर जनरल ने मुगल सम्राट से शक्तियाँ प्राप्त की थीं, जिसको ब्रिटिश संसद ठीक तरह से निर्धारित नहीं कर सकी। दूसरी ओर, सपरिषद् गवर्नर जनरल द्वारा बनाई गई विधियों को सर्वोच्च न्यायालय को रद्द करने का अधिकार प्रदान कर दिया गया। इस कारण गर्वनर जनरल और उसकी कौंसिल का सुप्रीप कोर्ट के साथ झगड़ चलता रहा। पुन्निया ने कहा एक्ट की धाराएँ अपनी कार्यशैली में अस्पष्ट और अरिभाषित थीं एवं नकारात्मक के स्थान पर सकारात्मक ढंग पर कार्यरत थीं, जिससे उसके बनाने वाले भी भ्रमित हो जाते थे और उनके अनेक अर्थ निकलते थे, जिसके फलस्वरू सुप्रीम कोर्ट और सुप्रीम कौंसिल में गम्भीर झगड़े प्रारम्भ हो गए।

कम्पनी के एक जमींदार कासिजोरा के राजा के केस में सुप्रीम कोर्ट और गवर्नर जनरल में प्रत्यक्ष रूप से झगड़ा छिड़ गया। सुप्रीम कोर्ट के जज श्री हाड़ा ने कासिजोरा के राजा के विरूद्ध एक आदेश जारी किया, लेकिन गवर्नर जनरल ने राजा को यह सूचना दी कि यह न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं आता है। अतः वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश को न मानें। सुप्रीम कोर्ट ने जब राजा को गिरफ्तार करने के लिए अपने कर्मचारी भेजे, तो गवर्नर जनरल ने न्यायालय के इन अधिकारियों को पकड़कर लाने का आदेश दिया। इस तरह से गवर्नर जनरल और सुप्रीम कोर्ट के बीच प्रत्यक्ष रूप से झगड़ा चलता रहा, जिसका कम्पनी के प्रशासन पर हानिकारक प्रभाव पड़ा।

सर्वोच्च न्यायालय का अस्पष्ट क्षेत्राधिकार-
इस एक्ट का महत्त्वपूर्ण दोष यह था कि इसमें सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों और अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट रूप से व्याख्या नहीं की गई थी। कुछ और मौलिक बातें भी अस्पष्ट तथा अनिश्चित थी। उदाहरणस्वरूप, ब्रिटिश प्रजा की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी गई थी, यह स्पष्ट नहीं था कि इस श्बद से अभिप्राय केवल अंग्रेजों से है अथवा कलकत्ता निवासियों से है अथवा बंगाल, बिहार और उड़ीसा में रहने वाले समस्त भारतीयों से है। सुप्रीम कोर्ट का दावा था कि उसको देश के सारे निवासियों के नाम आदेश जारी करने तथा उनके मुकदमें सुनने का अधिकार है, जबकि गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल सुप्रीम कोर्ट के इस अधिकार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए निश्चिय की यह एक भारी समस्या थी।

विधि की अस्पष्टता-
इस एक्ट में यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि कौन-से कानून (हिन्दू कानून या मुस्लिम कानून या अंग्रेजी कानून) के आधार पर न्याय किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के जज केवल अंग्रेज कानून जानते थे। हिन्दूओं तथा मुसलमानों के कानूनों तथा रीति-रिवाजों से अनभिज्ञ थे। अत वे अंग्रेजी विधि से नागरिकों के मामलों की सुनवाई करते थे। इससे भारतीयों को बहुत अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इस प्रकार, उन्हें वांछित न्याय नहीं मिल पाता था। जी.एन. सिंहने लिखा है, इससे उनमें काफी विक्षोभ तथा शेष पैदा हुआ। इसका परिणाम बहुत गम्भीर होता अगर सपरिषद् गवर्नर जनरल ने हस्तक्षेप नहीं किया होता तथा संसद ने 1781 ई. संशोधन द्वारा अधिनियम पास नहीं किया होता।

सुप्रीम कोर्ट तथा प्रादेशिक न्यायालयों में झगड़ा-
इस एक्ट द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्पष्ट रूप से व्याख्या नहीं की गई थी। अतः सुप्रीम कोर्ट तथा प्रान्तीय या प्रादेशिक न्यायालयों के बीच विवाद उत्पन्न हो गए।

कम्पनी के संविधान में दोषपूर्ण परिवर्तन-
इस एक्ट द्वारा एक हजार पौण्ड के हिस्सेदारों को ही संचालन मण्डल के सदस्यों के चुनाव में मतदान करने का अधिकार था। इससे 1246 हिस्सेदार, जिनके हिस्से एक हाजर पौण्ड से कम मूल्य के थे, मताधिकार से वंचित हो गए। बड़े हिस्सेदारों को एक से अधिक मत देने का अधिकार दिया गया, जिसके कारण भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिला। परिणामस्वरूप, कम्पनी का संचालक मण्डल एक स्थायी अल्पतन्त्र में बदल गया। राबर्ट्स ने लिखा है, यह प्रावधान संचालक मण्डल के संविधान में परिवर्तन से सम्बन्धित अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहा। इसके अतिरिक्त जी.एन. सिंह ने लिखा है, स्वामी मण्डल में मताधिकार योग्यताएँ बदलने से तात्कालीन स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया क्योंकि कम्पनी के सेवानिवृत्त कर्मचारियों का कम्पनी में प्रभाव घटाने का महान उद्देश्य सिद्ध नहीं हुआ।

कम्पनी पर संसद का अपर्योप्त नियंत्रण-
इस एक्ट में यह व्यवस्था की गई थी कि भारत में कम्पनी की सरकार से संचालकों को जो भी पत्र व्यवहार होगा, 15 दिन के अन्दर उनकी कॉपियों (नकलें) मन्त्रियों के पास भेजी जाएँगी। कम्पनी अपने कार्यो की रिपोर्ट ब्रिटिश सरकार को भेजती थी, किन्तु सरकार ने उन रिपोर्टो की जाँच के लिए कोई व्यवस्था नहीं की। अतः कम्पनी पर संसद का नियंत्रण अपर्याप्त और प्रभावहीन री रहा।

कमजोर कार्यपालिका-
इस एक्ट के अन्तर्गत दुर्बल कार्यपालिका की रचना की गई थी। गवर्नर जनरल अपनी कौंसिल के सामने शक्तिहीन था। कौंसिल या कार्यकारिणी स्वयं भी सुप्रीम कोर्ट के सामने शक्ति हीन थी। वस्तुतः इस एक्ट में यह व्यवस्था करके गवर्नर जनरल द्वारा बनाए गए, कानूनों या अध्यादेशों पर सर्वोच्च न्यायालय की स्वीकृति प्राप्त की जानी चाहिए, कार्यकालिका को दुर्बल कर दिया।

इस एक्ट के दोषों के बारे में पुन्निया ने लिखा है, अधिनियम के उपबन्धों की भाषा इतनी अस्पष्ट तथा अनिश्चित थी और सकारात्मक शब्दों से भरी हुई थी कि इसके निर्माताओं का लक्ष्य दुर्बल हो गया तथा उपबन्धों की एक से अधिक व्याख्या दी जा सकती थी। संक्षेप में पी.ई. रॉबर्ट्स के मतानुसार, इस अधिनियम ने न तो राज्यों कोम्पनी के ऊपर सुनिश्चित नियंत्रण प्रदान किया और न कलकत्ता को अपने कर्मचारियों पर, न महाराज्यपाल (गवर्नर जनरल) को अपनी परिषद् पर और न कलकत्ता प्रेसीडेन्सी को मद्रास और बम्बी की ्‌रेसीडेन्सियों पर सुनिश्चित नियंत्रण प्रदान किया। 1918 के भारतीय संवैधानिक रिपोर्ट में यह बात स्पष्ट रूप से स्वीकार की गई थी कि, इस एक्ट ऐसे गवर्नर जनरल की सृष्टि की, जो अपनी ही कौंसिल के समक्ष शक्तिहीन था और एक ऐसी कार्यपालिका बनाई, जो सुप्रीम कोर्ट के समक्ष शक्तिहीन थी और साथ ही स्वयं शान्ति के उत्तरदायित्त्वों और देश के हित का उत्तरदायित्व भी इस पर नहीं आया।

रेग्यूलेटिंग एक्ट के इन दोषों को दूर करने के लिए 1781 ई. में बंगाल न्यायालय एक्ट पास किया गया। इस एक्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र को काफी सीमित कर दिया गया और गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल की शक्तियों में वृद्धि की गई। इसके बाद 1784 ई. में पिट्स इण्डिया एक्ट पास किया गया, जिसके अनुसार गवर्नर जनरल को अपनी कौंसिल के निर्णयों के विरूद्ध भी विशेष आवश्यकता पड़ने पर काम करने की आज्ञा दे दी गई। इसके पश्चात् 1786 ई. में एमेण्डिंग एक्ट पास किया गया, जिसके द्वारा गर्वनर जनरल को महत्त्वपूर्ण मामलों में कौंसिल के निर्णयों को रद्द करने का अधिकार दिया गया।

रेग्यूलेटिंग एक्ट की अपूर्णताओं के कारणइस अधिनियम की अपूर्णताओं के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

(1)       ब्रिटिश पार्लियामेन्ट को एक ऐसी समस्या सुलझानी पड़ी, जो एकदम बिलकुल नई थी। 1765 ई. तक कम्पनी मुगल सम्राट की दीवान बन चुकी थी। इस नाते पार्लियामेंट उसके भारतीय प्रदेशों पर अपनी प्रभुसत्ता घोषित करने से हिचकिचाती थी। यही कारण था कि पार्लियामेंट कम्पनी के मामलों में आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप नहीं करना चाहती थी। ऐसी परिस्थितियों में एक्ट की धाराओं का अस्पष्ट तथा दोषपूर्ण होना कोई बड़ी बात नहीं थी।

(2)       ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्यों को भारतीय मामलों के सम्बन्ध में विशेष ज्ञान नहीं था। ब्रिटिश सरकार को भी उस समय भारत की स्थिति और उसी समस्या के हल का ठीक तरह पता न था। उसके पास कुछ ऐसे विश्वसनीय व्यक्ति भी न थे, जो उसे इस विषय पर आवश्यक परामर्श दे सकते। कम्पनी के कर्मचारी सरकार को ठीक सलाह दे सकते थे, परन्तु वे रिश्वतखोरी के कारण इतने बदनाम थे कि ब्रिटिश राजनीतिज्ञ उनसे धृणा करते थे और उनसे परामर्श लेने के पक्ष में नहीं थे। अतः दक्ष-मंत्रणा के अभाव में इस अधिनियम बनाने वालों के लिए गलती करना स्वाभाविक था।

(3)       इल्बर्ट ने लिखा है, एक्ट में दोषों का होना स्वाभिवाक था। कुछ तो इसलिए की समस्या इस प्रकार की थी और कुछ इसिलिए की पार्लियामेंट के सम्मुख एक कठिन संवैधानिक प्रश्न था। जी.एन.सिंह ने लिखा है, इस एक्ट के दोष चाहे जितने गम्भीर हो, परन्तु वे घातक सिद्ध नहीं हुए।

(4)       लार्ड नार्थ जिसने यह बिल पेश किया, दृढ़ विचारों का व्यक्ति नहीं था। उसे निर्णायक कार्य करने की आदत बहुत कम थी। वह शासकीय क्षेत्र में अधिक परिवर्तन करने के पक्ष में नहीं था। इसलिए भी रेग्यूलेटिंग एक एक स्पष्ट तथा सुनिश्चित पग प्रमाणित न हुआ। ।

रेग्यूलेटिंग एक्ट का महत्त्व
यद्यपि रेग्यूलेटिंग एक्ट में बहुत दोष थे, तथापि जिन परिस्थितियों में उसाक निर्माण हुआ, सर्वथा सराहनीय था। बाउटन राउज के अनुसार, एक्ट का उद्देश्य तो अच्छा था, पर जो तरीका उसने अपनाया, वह अधुरा था। सप्रे ने ठीक ही लिखा है, यह अधिनियम संसद द्वारा कम्पनी के कार्यों में प्रथम हस्तक्षेप था, अतः उसकी नम्रतापूर्वक आलोचना की जानी चाहिए। यह प्रथम अवसर था जबकि एक्ट के द्वारा ब्रिटिश संसद ने कम्पनी की व्यवस्था को सुधारने के लिए उसके कार्यों में हस्तक्षेप किया था। यह भारत के संवैधानिक विकास के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। अतः इसका संवैधानिक महत्त्व बहुत अधिक है। निम्मलिखित कारणों से यह भारत के संवैधानिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण सीमा चिन्ह बन गया-
(1) इसने यह स्पष्ट कर दिया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी केवल व्यापारिक संस्था ही नहीं है, बल्कि वह एक राजनीतिक संगठन है और जिसे राजनीतिक अधिकार भी प्राप्त है। दूसरे शब्दों में, कम्पनी भारत में राजनीतिक शक्ति के रूप में कार्य कर रही थी। इस एक्ट द्वारा उसे मान्यता प्रदान कर दी गई।

(2) इस एक्ट द्रारा संचालकों के कार्यकाल में वृद्धि कर दी गई, जिसके कारण अब से अपनी नीतियों को ठीक ढंग से कार्यान्वित कर सकते थे। पुन्निया ने इस सम्बन्ध में लिखा है, इस एक्ट के द्वारा डायरेक्टरों के लिए प्रदान लम्बी अवधि और अंशकालिक नवीनीकरण ने उनमें सुरक्षा की भावना तथा नीति में निरन्तरता उत्पन्न की।

(3) इस एक्ट द्वारा कम्पनी तथा कम्पनी के कर्मचारियों पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण स्थापित हो गया। कम्पनी के गवर्नर जनरल, कौंसिल को सदस्य तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्याधीशों की नियुक्ति ब्रिटेन के सम्राट के द्वारा की जाती थी। इससे अन्याय एवं अत्याचारों का अन्त हो गया। धीरे-धीरे यह नियंत्रण कठोर होता गया और 1858 ई. में कम्पनी के शास का ही अन्त कर दी गया। इस प्रकार, इस एक्ट के परिणाम बड़े दूरगामी व स्थायी सिद्ध हुए।

(4) इस एक्ट द्वारा पहली बार भारत में ब्रिटिश अधिकृत क्षेत्रों पर कम्पनी शासन का एक व्यवस्थित विधान तैयार किया गया, जिससे शासन की एक स्पष्ट रूपरेखा निश्चित हुई। सर्वाधिक महत्त्व की बात यह है कि भविष्य में बनाए जाने वाले सभी संवैधानिक नियमों के लिए अधिनियम ने ढाँचा तैयार कर दिया।

(5) यह प्रथम अवसर था, जबकि ब्रिटिश सरकार ने यूरोप के बाहर भू-क्षेत्र के शासन का उत्तरदायित्व ग्रहण किया। यह एक्ट वास्तव में कम्पनी के भारतीय क्षेत्र में बिना क्राउन के उत्तरदायित्व सम्भाले अच्छी सरकार लाने का एक अच्छा प्रयास था।

(6) इस एक्ट द्वारा कम्पनी के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार निजी व्यापार और उपहार लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। यह बात कम महत्त्वपूर्ण नहीं थी।

(7) इस एक्ट द्वारा केन्द्रीय कार्यकारिणी का आरम्भ किया गया था, जिसका ब्रिटिश शासनकाल में उत्तरोत्तर विकास होता गया।

(8) इस एक्ट द्वारा भारतीय प्रशासनिक ढाँचे का केन्द्रीकरण की दिशा में प्रथम प्रयास किया गया। बम्बई व मद्रास के गवर्नरों को गवर्नर जनरल के अधीन कर ब्रिटिश अधिकृत क्षेत्र को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया गया। इस प्रकार, भारत में कम्पनी की विभिन्न शाखाओं पर एक सर्वोच्च सत्ता स्थापित कर दी गई थी।

इस एक्ट के महत्त्व का वर्णन करते हुए प्रो. कीथ ने लिखा है, इस एक्ट लने कम्पनी के इंग्लैण्ड में स्थिति संस्थाओं के विधान में परिवर्तन किया। भारत सरकार के स्वरूप में कुछ सुधार किए। कम्पनी के समस्त विजित प्रदेशों पर एक शक्ति का नियंत्रण स्थापित किया गया। कम्पनी को किसी अंश तब ब्रिटिश मंत्रिमण्डल की देख-रेख में रखने का प्रयत्न किया गया।

एस.आर. शर्मा ने ठीक ही लिखा है, रेग्यूलेटिंग एक्ट ने भारत में कम्पनी के शासन को उन्नत करने के लिए बिना ताज के महत्त्वपूर्ण प्रयत्न किया और उसका उत्तदायित्त्व प्रत्यक्ष रूप से धारण किया। इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण धारा सुप्रीम कोर्ट की स्थापना (बंगाल में उच्चतम न्यायालय की स्थापना के लिए) थी। इसके द्वारा ताज को समय-समय पर समाचार ज्ञात होते रहते थे, जिसके कारण वह कम्पनी के शासन का निर्णय कर सकता था। इसके द्वारा व्यक्तिगत व्यापार तथा भेंट व उपहार स्वीकार करने पर प्रतिबन्ध लगाए गए। गवर्नर जनरल की कौंसिल को सम्मिलित अधिकार प्राप्त हुए, जो सन् 1781 ई. तक चलते रहे। इसके द्वारा कम्पनी के प्रशासित प्रदेशों में एक उच्च सत्ता की स्थापना हुई। प्रो. सूद ने लिखा है, हमारे देश के वैधानिक इतिहास में इस अधिनियम का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह ब्रिटिश संसद के द्वारा पास किए गए अनेक कानूनों की लम्बी श्रृंखला की प्रथम कड़ी है, जिसने भारत सरकार के स्वरूप को समय-समय पर ढालने और बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।

राजस्थान के भूतपूर्व गवर्नर श्री गुरूमुख निहालसिंह ने अपनी पुस्तक भारत का वैधानिक विकास तथा राष्ट्रीय आन्दोलन में लिखा है, सन् 1773 के एक्ट का वैधानिक महत्त्व बहुत बड़ा है। इसका कारण यह है कि उसने निश्चित रूप से कम्पनी की राजनीतिक कार्यवाहिनी को स्वीकार किया। दूसरा कारण यह है कि, उस समय तक जो कम्पनी के निजी प्रदेश समझे जाते थे, उनमें सरकारी ढाँचा किस प्रकार का हो, यह निश्चित करने के लिए पार्लियामेंट ने अपने अधिकार पर पहली बार जोर दिया। तीसरा कारण यह है कि, भारतीय सरकार का ढाँचा बदलने के लिए पार्लियामेंट ने जो बहुत-से एक्त बनाए, उनमें यह सबसे पहला था। सन् 1919 ई. के भारत सरकार के अधिनियम की प्रस्तावना में यह बात अन्तिम रूप और बड़ी दृढ़ता से स्पष्ट की गई कि भारतवासियों के लिए किसप्रकार का विधान उचित और आवश्यक है, उसे निश्चित करने और लागू करने का एकमात्र अधिकार पार्लियामेंट को है।

यह एक्ट ब्रिटिश भारत का प्रथम लिखित संविधान के रूप में था। इसके द्वारा कम्पनी के राजनीतिक लक्ष्य व अस्तित्व को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया था। इतना ही नहीं, इस एक्ट के आधार पर आगे आने वाले कानूनों की रूपरेखा तैयार की गई। संक्षेप में, यह एक्ट कम्पनी के संवैधानिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके द्वारा ऐसी शासन व्यवस्था का प्रारम्भ हुआ जो, ऐंग्लो-भारतीय प्रशासनिक ढाँचे की आधारशिला बनी।

बंगाल न्यायालय एक्ट
रेल्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद ने मि. बर्क की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की। इस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 1781 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक एक्ट पास किया, जिसे बंगाल न्यायालय का एक्ट कहा जाता है। इसे संशोधन अधिनियम भी कहते हैं। इस एक्ट का मुख्य उद्देश्य न्यायालय के अधिकार क्षेत्र और शक्तियों के विषय में उत्पन्न अनिश्चितथा का अन्त करना था।

एक्ट की प्रमुख धाराएँ- इस एक्ट की प्रमुख धाराएँ निन्मलिखित थीं।
1. इस एक्ट के अनुसार कम्पनी के कर्मचारियों के सरकारी तौर पर किए गये कार्य काफी सीमा तक सुप्रीम कोर्ट के अधिकार के बाहर कर दिए गए। दूसरे शब्दों में गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल द्वारा किए गए कार्यो पर सर्वोच्च न्यायालय कोई नियंत्रण नहीं रहा।
2. छोटे न्यायालयों के न्याय अधिकारियों के न्याय सम्बन्धी कार्यों पर से सुप्रीम कोर्ट का कण्ट्रोल हटा दिय गया.
3. ख्राजस्व वसूल करने वाले अधिकारियों पर से सुप्रीम कोर्ट का नियंत्रण हटा लिया गया।
4. गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल पर से सुप्रीम कोर्ट का नियंत्रण हटा दिया गया। अब सुप्रीम कोर्ट गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल के सिर्फ उसी कार्य में हस्तक्षेप कर सकता था, जिससे ब्रिटिश प्रजा को हानि पहुँचती हो।
5. कम्पनी के न्यायालयों के निर्णयों के विरूद्ध गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल को अपील सुनने का अधिकार दे दिया गया।
6. गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् को सुप्रीम कोर्ट की सम्मत्ति के बिना प्रान्तीय न्यायालयों तथा परिषद् के सम्बन्ध में नियम बनाने का अधिकार दे दिया गया।
7. सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र केवल कलकत्ता वाशिंदों तक सीमित कर दिया गया अर्थात् शेष स्थानों पर रहने वाले भारतीयों के मुकदमें सुनने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को नहीं था।
8. यह भी कहा गया कि न्याय करते समय भारतीयों की धार्मिक परम्पराओं, रीति-रिवाजो, सामाजिक नियमों और जातीय कानूनों को ध्यान में रखा जाएगा। इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट के लिए मुकदमों के फैसले अंग्रेजी कानून के अनुसार करने की मनाही कर दी गई।
9. यह भी कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट हिन्दुओ के मुकदमों का हिन्दुओं के कानून के अनुसार और मुसलमानों के मुकदमों का मुसलामनों के कानून के अनुसार फैसला करे।

इस एक्ट से सुप्रीम कोर्ट के गवर्नर जनरल की कौंसिल तथा छोटे न्यायालयों के साथ चलने वाले झगड़े समाप्त हो गए। भारतीयों को अंग्रेजी कानून के विरूद्ध जो शिकायत थी, वह भी दूर हो गई। संक्षेप में, इस एक्ट ने रेग्युलेटिंग एक्ट के सर्वोच्च न्यायलय से सम्बन्धित दोषों को दूर कर दिया। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल की स्थिति को दृढ़ बना दिया।

डुण्डास का इण्डियन बिल (अप्रैल 1783)
30 मई, 1782 ई. को डुण्डास के प्रस्ताव पर ब्रिटिश लोक सभा ने वारेन हेस्टिंग्स प्रशासन की निन्दा की और डायरेक्टरों से उसे वापस बुलाने के लिए कहा। परन्तु स्वामी मण्डल ने लोक सभा के आदेश की अवहेलना करते हुए हेस्टिग्स को उसके पद पर बनाए रखा। कीथ के अनुसार, इस तरह स्पष्ट कर दिया गया कि कम्पनी के डायेर्कटर न तो अपने कर्मचारियों का नियंत्रित कर सकते थे और राज्यों को या कम्पनी को, जबकि कलकत्ता के विरूद्ध होने वाली मद्रास प्रेसीडेन्सी की कार्यवाहियों ने यह सिद्ध कर दिया कि मुख्य प्रेसीडेन्सी सहायक को अपने नियंत्रण में नहीं रखा सकती थी।

कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए अप्रैल, 1783 में मि. डुण्डास ने एक बिल प्रस्तुत किया, जिसमें निम्नलिखित सुझाव दिए गए थे-
1. सम्राट को कम्पनी के प्रमुख अधिकारियों को वापस बुलाने का अधिकार दिया जाए।
2. कुछ महत्त्वपूर्ण मामलों में गवर्नर जनरल को अपनी कौंसिल के निर्णयों को रद्द करने की शक्ति दी जाए।
3. गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल का प्रादेशिक सरकारों पर नियंत्रण बढ़ा दिया जाए।

चूँकि डुण्डास विरोधी दल का सदस्य था, अतः उसके द्वारा प्रस्तावित वह बिल पास नहीं हो सका। फिर, भी उसका विधेयक इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ कि इसने भारत में संवैधानिक परिवरत्न की आवश्यकता पर जोर दिया और मंत्रिमण्डल को कार्यवाही करने की प्रेरणा दी।

फॉक्स का इण्डिया बिल (नवम्बर, 1783)

डुण्डास विधेयक ने सरकार को कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए प्रेरित किया। अतः फॉक्स तथा नौर्थ के संयुक्त मंत्रिमण्डल ने तुरन्त इस प्रश्न को अपने हाथ में लिया। फॉक्स ने भारत में कम्पनी सरकार को अवर्णआतीत, शोचनीय, अराजकता तथा गड़बड़ बतलाया। उसने 18 नवम्बर, 1783 ई. को अपना प्रसिद्ध ईस्ट इण्डिया बिल पेश किया, जिसके प्रमुख सुझाव निम्नलिखित थे-

1. कम्पनी की प्रादेशिक सरकार को उसके व्यापारिक हितों से पृथक् कर दिया गया।
2. स्वामी मण्डल तथा संचालक मण्डल के स्थान पर सात कमिश्नरों का एक मण्डल लन्दन में स्थापित किया जाए।
3. इस मण्डल को भारतीय प्रदेशों तथा उसके राजस्व का प्रबन्ध करने का पूर्ण अधिकार हो। उसको कम्पनी के समस्त कर्मचारियों को नियुक्त तथा पदच्युत करने की शक्ति भी दी जाए।
4. मण्डल के सदस्यों की नियुक्ति पहली बार संसद के द्वारा की जाए लेकिन बाद में रिक्त होने वाले स्थानों को भरने का अधिकार सम्राट को हो।
5. इन सदस्यों का कार्यकाल चार वर्ष रखा गाय औैर इस अवधि के दौरान उन्हें संसद के दोनों सदनों में से किसी एक सदन के कहने पर इंग्लैण्ड का सम्राट उन्हें पदच्युत कर सके।
6. इस बोर्ड की बैठकें लन्दन में बुलाए जाए और संसद को इस मण्डल के कार्यों का निरीक्षण करने का अधिकार हो, अर्थात् बोर्ड पर संसद का नियंत्रण स्थापित किया जाए।
7. व्यापार को नियंत्रित करने के लिए व सहायक निदेशकों का एक और मण्डल बनाया जाए।
8. इन सहायक निदेशकों की नियुक्ति भी प्रथम बार संसद द्वारा हो और इसके पश्चात् स्वामी मण्डल को उन्हें निर्वाचित करने का अधिकार दिया जाए।
9. इन सहायक निदेशकों को कार्यकाल पाँच वर्ष हो और इस सम्बन्ध में वे भी कमिश्नरों की तरह सुरक्षित हों।
10. विधेयक में एकाधिकार, भेंट तथा रियासतों को ब्रिटिश सेना के मदद को समाप्त करने की व्यवस्था की गई।

फॉक्स विधेयक का संसद में तथा उसके बाहर जोरदार विरोध हुआ। पुन्निया के शब्दो में पार्लियामेन्ट के अन्दर और बाहर दोनों जगह इस विधेयक का मुखर, प्रबल और कटुतापूर्ण विरोध हुआ। इस विधेयक के दोषों के बारे में रॉबर्ट्सन ने लिखा है, भारत में कम्पनी सरकार को वस्तुतः सात व्यक्तियों के सुपुर्द कर दिया गया था। इससे कमिश्नरों तथा शासक दल को संरक्षण बाँटने का विस्तृत अधिकार मिल जाता। इससे संसद ने भ्रष्ट होने का भी भय था। यह नये राजनीतिक दायित्व का निर्माण करता।

कम्पनी का संविधान चार्टर द्वारा नियमित होता था, परन्तु फॉक्स विधेयक से कम्पनी के चार्टर की पवित्रता नष्ट हो जाती और उसके संविधान के नष्ट हो जाने से अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती। इंग्लैण्ड नरेश जार्ज तृतीय के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के कारण यह विधेयक लार्ड सभा में अस्वीकृत हो गया। रॉबर्ट्सन के शब्दों में विधेयक एक बड़ी समस्या को व्यापक रूप से सुलझाने का निश्छल एवं कूटनीतिक प्रयास था। कीथ ने भी लिखा है, यह विधेयक सम्पूर्ण संविधान को सुधारने का एक प्रबल प्रयत्न था।

पिटस इंडिया एक्ट (1784 ई.)
रेग्यूलेटिंग एक्ट जल्दबाजी में पारित किया गया था। अतः लागू होने के कुछ समय पश्चात् ही इसके दोष स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगे थे। मद्रास तथा बम्बई की प्रेसीडेन्सियों पर बंगाल का पर्याप्त नियंत्रण नहीं था, जिसके कारण कम्पनी को अनावश्यक युद्धों में उलझना पड़ा था। 1781 में एक संशोधन अधिनियम पारित किया गया था, जिसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्पष्ट रूप से व्याख्या कर दी गई, किन्तु प्रशासन सम्बन्धी दोष अभी भी विद्यामान थे, 1781-82 ई. में ब्रिटिश संसद वारेन हेस्टिंग्स को इंग्लैण्ड बुलाना चाहती थी, किन्तु कम्पनी के हिस्सेदारों के विरोध के कारण नहीं बुला सकी। इससे कम्पनी पर संसद का अपर्याप्त नियंत्रण स्पष्ट हो गया। अतः रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए एक सुधार विधेयक पारित करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।

डुण्डास तथा फॉक्स जैसे राजनीतिज्ञों ने इस दिशा में संवैधानिक पग उठाने का प्रयत्न भी किया, परन्तु कई कारणों से वे सफल नहीं सके। अतः ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पिट् ने एक विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे संसद ने 1748 ई. में पारित कर दिया। यह एक्ट भारत के इतिहास में पिट्स इण्डिया एक्ट के नाम से प्रसिद्ध है। इस एक्ट द्वारा कम्पनी के प्रशासन पर कठोर नियंत्रण स्थापित किया गया। इसके द्वारा ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की गई, जो त्रुटिपूर्ण होने पर भी सन् 1858 ई. तक कम्पनी के संविधान का आधार बनी रही।

एक्ट के पास होने के कारण
पिट्स इण्डिया एक्ट के पारित होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(1)       रेग्युलेटिंग एक्ट की त्रुटियाँ- रेग्यूलेटिंग एक्ट में अनेक दोष रह गए थे। वारेन हेस्टिंग्स ने इस एक्ट के अनुसार कार्य किया और उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस एक्ट का सबसे बड़ा दोष यह था कि गवर्नर जनरल को अपनी कौंसिल में बहुमत द्वारा किए गए निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था। इसके अतिरिक्त उसका बम्बई तथा मद्रास की सरकारों पर प्रभावशाली नियंत्रण नहीं था। इसलिए वहाँ की सरकारें अपनी इच्छा से देशी शक्तियों के साथ युद्ध लड़ती रहीं। सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार अनिश्चित था अतः उसके साथ गवर्नर जनरल का विवाद चलता रहता था। 1781 ई. के बंगाल न्यायालय एक्ट के द्वारा सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार तो निश्चित कर दिया गया था, परन्तु रेग्यूलेटिंग एक्ट के अन्य दोषों को दूर नहीं किया गया था। अतः उनको दूर करने हेतु एक नवीन एक्ट की आवश्यकता थी।

(2)       कम्पनी के भारतीय प्रशासन में अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार-
यद्यपि रेग्यूलेटिग एक्ट के द्वारा गवर्नर जनरल, उनकी परिषद् के सदस्य और सुप्रीम कोर्ट के जजों को निजी व्यापार करने, रिश्वत या भेटं की सख्त मनाही कर दी गई थी, तथापि वे अप्रत्यक्ष रूप से बहुत से अनुचित तरीकों से भारत में धन जमा कर लेते थे। गवर्नर जनरल ने बनारस के राजा चेतसिंह और अवध की बेगम से धन प्राप्त करने के लिए ऐसे अत्याचार किए, जो नैतिक दृष्टिकोण से बहुत निन्दनीय थे। वारेन हेस्टिंग्स के साथियों ने धन एकत्रित करने भी मात दे दी। बारवेल, फ्रांसिस तथा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर एलिंग इम्पे ने अनुचित तरीकों से काफी धन एकत्रित किया। इतना नहीं, कम्पनी के कर्मचारी तथा अधिकारी भी अनुचित तरीकों से भारत में धन जमा कर लेते थे और रिटायर होकर इंग्लैण्ड में विलासितपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। वे जुनाव जीतकर ब्रिटिश पार्यिटामेंट में पहुँच जाते थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के भारतीय प्रशासन में अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए इस दिशा में एक नया एक्ट पारित करना आवश्यक समझा।

(3)       ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर अपर्याप्त नियंत्रण-
1781 ई. में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने कम्पनी के भारतीय प्रशासन की जाँच-पड़ातल के लिए दो कमेटियाँ नियुक्त की थीं। इन कमेटीयो ने अपनी रिपोटों में फैली भारत में फैली हुई अव्यवस्था के लिए कम्पनी के अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया। इस पर ब्रिटिश संसद में मई, 1782 ई. में वारे हेस्टिंग्स तथा उसके एक अन्य सहयोगी हार्नवाई को भारत से वापस बुलाने के लिए एक प्रस्ताव पास किया गया। परन्तु कम्पनी के स्वामी मण्डल ने इसे अस्वीकार कर दिया और हाऊस ऑफ कॉमन्स की इच्छा के विरूद्ध वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर जनरल बनाए रखाष क्योंकि वह कम्पनी को अनुचित ढंग से धन इकट्ठा करके देता था। अतः ब्रिटिश सरकार ने अनुभव किया कि रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा संसद का कम्पनी पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित नहीं हुआ है और इस त्रुटि को शीघ्रातिशीघ्र दूर करने की आवश्यकता है। अतः इस उद्देश्य को प्राप्त ककरने के लिए सरकार ने एक एक्ट पारित करना आवश्यक समझा।

(4)       कम्पनी की गलत नीति-
कम्पनी के कर्मचारियों ने भारत में मैसूर के शासक, मराठों और रोहिलों से बिना किसी विशेष कारण के युद्ध आरम्भ कर दिए थे। इस युद्धों में कम्पनी का अपार धन व्यय हुआ। इनको आरम्भ करने से पूर्व कम्पनी ने ब्रिटिश सरकार की अनुमति प्राप्त नहीं की थी। अतः ब्रिटिश सरकार इन युद्धों के सख्त विरूद्ध थी।

(5)       अमरीकी बस्तियों का छीना जाना-
अमेरिका के स्वतंत्रता संग्रा में इंग्लैण्ड की पराजय हुई, जिससे उसकी सत्ता तथा प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचा। इसके अतिरिक्त इंग्लैण्ड को अमेरिका की 13 बहुमूल्य बस्तियों से हाथ धोने पड़े, जिसके कारण अंग्रेजों के व्यापार को जबरदस्त धक्क लगा। इन अमेरिकन बस्तियों के हाथ से निकल जाने के परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार की दृष्टि में भारतीय प्रदेशों ता महत्त्व बहुत बढ़ गया और वे इन्हें इंग्लैण्ड नरेश के मुकुट का सबसे सुन्दर तथा बहुमूल्य हीरा समझने लगे। प्रधानमंत्री पिट ने बिल प्रस्तुत करते समय स्वयं इस तथ्य की पुष्टि करते हुए यह शब्द कहे, बस्तियों के छिन जाने से इंग्लैण्ड के लिए भारतीय प्रदेशों का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। अब हमें अपने हितों को सुरक्षित रकने के लिए इनमें कुशल शासन प्रबन्ध की व्यवस्था करनी चाहिए। अतः ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के शासन पर अपना प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक नये एक्ट की आवश्यकता अनुभव की।

(6)       भारत की भलाई-
प्रधानमंत्री पिट चाहता था कि भारत में अच्छा शासन स्थापित हो और वहाँ के लोग इंग्लैण्ड से होने वाली भलाइयों को महसूस करें। उसने 6 जुलाई, 1784 ई. को हाऊस ऑफ कॉमन्स में भाषण देते हुए यह शब्द कहे, हमें यह देखना है कि भारत से हमारा देश अधिक से अधिक लाभ उठाए और कम्पनी के प्रदेशों में रहने वाले भारतीयों के लिए भी हमारे सम्बन्ध अत्यधिक लाभदायक हों। इस प्रकार पीट ने इस एक्ट को पारित होने में काफी योग दिया और उसका एक्ट की रूपरेखा पर भी काफी गहरा प्रभाव पड़ा।

(7)       कम्पनी द्वारा ब्रिटिश सरकार से आर्थिक सहायता की माँग-जब कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई, तो मार्च, 1783 ई. में इसने ब्रिटिश सरकार से आर्थिक सहायता माँगी। इससे पार्लियामेंट को उसके शासन में हस्तक्षेप करने का अवसर प्राप्त हो गया। मि. फॉक्स ने कम्पनी की तानाशाही के विरूद्ध आवाज उठाई, जबकि मि. बर्क ने उसके भ्रष्टाचार की बहुत निन्दा की। बर्क ने अपने भाषण को समाप्त करते हुए यह शब्द कहे, सहायता और सुधार एक साथ होंगे। ब्रिटेन की जनता ने भी बर्क के विचारों का समर्थन किया। अतः मि. डुण्डास ने अप्रैल, 1783 ई. में कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए एक बिल पेश किया।

(8)       डुण्डास और फॉक्स के बिल-
पिट से पहले रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए तथा ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए डुण्डास ने अप्रैल, 1783 ई. में तथा फॉक्स ने नवम्बर, 1783 ई. में बिल रखे थे, परन्तु अनेक कारणों से वे पास नहीं हो सके थे. इन विधेयकों ने सरकार को कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए अवश्य ही प्रेरित किया।

पिट्स का इण्डिन बिल-
फॉक्स इण्डिया बिल के असफल होने के बाद विलयम पिट ने जनवरी, 1784 ई. में पार्लियामेंट में ईस्ट इण्डिया बिल पेश किया। अगस्त, 1784 ई. में यह बिल पार्लियामेंट द्वारा पास होने और सम्राट की स्वीकृति प्राप्त करने पर एक्ट बन गया। इसे पिट्स इण्डिया का नाम दिया गया।

एक्ट की प्रमुख ााराएँ अथवा उपबन

(1)       कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था सेे सम्बन्ध रखने वाले उपबन्ध
इस एक्ट द्वारा कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया। कम्पनी के शासन पर नियंत्रण रखने के लिए एक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गई, जबकि उसके व्यापारिक कार्य का प्रबन्ध कम्पनी के संचालकों के हाथों में रहने दिया गया।

(अ) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल
(i)        पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा स्थापित बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल में राज्य सचिव तथा वित्त मंत्री के अतिरिक्त चार अन्य सदस्य रखे गये, जिनकी नियुक्ति और पदमुक्ति का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। सदस्यों के वेतन आदि का खर्चा भारत के राजस्व से वसूल करने का निर्णय किया गया। यह नियंत्रण बोर्ड कम्पनी के संचालको के ऊपर था और इसके अधीन की कम्पनी के मालिकों का बोर्ड भी था।
(ii)       इस बोर्ड का अध्यक्ष राज्य सचिव होता था। इसकी अनुपस्थिति में वित्त मंत्री को बोर्ड के सभाति के रूप में कार्य करता था। यदि किसी विषय पर दोनो पक्षों में बराबर मत न हों, तो अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार था।
(iii)       बोर्ड की तीन सदस्यों की उपस्थिति इसकी गणपूर्ति के लिए आवश्यक थी।
(iv)       बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की बैठकों के लिए इनके सदस्यों को कोई वेतन नहीं मिलता था। अतः उन्हें पार्लियामेंट की सदस्यता के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता था।
(v)       कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार बोर्ड ऑफ कण्डोल को नहीं दिया गया। पुन्निया के शब्दों में इस प्रकार संरक्षकता निदेशक समिति और कम्पनी के हाथों में ही रहने दी गई और देश इस प्रबन्ध से संतुष्ट हो था।
(vi)       बोर्ड को कम्पनी के सैनिक, असैनिक तथा राजस्व सम्बन्धी मामलों की देखभाल, निर्देशन तथा नियंत्रण के विस्तृत अधिकार दिए गए। बोर्ड कम्पनी के डाइरेक्टरों के नाम आदेश भी जारी कर सकता था। इस तरह ब्रिटिश सरकार को बोर्ड के माध्यम से कम्पनी के सब मामलों पर नियंत्रण स्थापित कर दिया। बोर्ड के सदस्यों को कम्पनी के समस्त रिकार्डों को देखने की सुविधा भी दे गई।

(vii)      कम्पनी के संचालकों को भारत से प्राप्त तथा भारत को भेजे जाने वाले समस्त पत्रों की नकलें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के साने रखनी पड़ती थी। बोर्ड के सदस्यों को यह अधिकार दिया गया कि वह उनके सम्मुख प्रस्तुत किए गए आदेशों तथा निर्देशों को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकें। उन्हें उनमें अपनी इच्छानुसार परिवर्तन करने का अधिकार भी दिया गया। उनको इतने व्यापाक अधिकार थे कि वे संचालकों को द्वारा प्रस्तुत पत्रों में परिवर्तन करके उन्हें सर्वथा नया रूप दे सकते थे। इस प्रकार, बोर्ड द्वारा स्वीकृत किए गए या संशोधित किए गए आदेशों को संचालक भारत में अपने कर्मचारियों के पास भेजने के लिए बाध्य थे। परन्तु फिर भी कम्पनी के दैनिक कार्यों और नियुक्तियों में संचालकों का काफी प्रभाव था।
(viii)     बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल बिना संचालन मण्डल की सहमति के भी भारत सरकार को आदेश भेज सकता था, परन्तु संचालन मण्डल को बोर्ड की अनुमति के बिना भारत में कोई भी आदेश भेजने का अधिकार नहीं था इसके अतिरिक्त कार्य को शीघ्रता से निपटाने के लिए बोर्ड संचालक मण्डल को किसी भी विषय पर पत्र या आदेश तैयार करने की आज्ञा दे सकता था। यदि वे 14 दिने के अन्दर-अन्दर इस कार्य को न कर पाएँ, तो बोर्ड को यह अधिकार था कि वह स्वयं पत्र तैयार करके संचालकों को भेज दें। संचालक मण्डल ऐसे पत्रों को बिना उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन किए भारत सरकार को भेजने के लिए बाध्य था।
(ix)       इस एक्ट के अनुसार संचालकों में से तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति गठित की गई, जिसके द्वारा बोर्ड अपने गुप्त आदेश भारतीय सरकार को भेज सकता था। इस समिति के सदस्य उन गुप्त आदेशों को दूसरे संचालकों को नहीं बता सकते थे और न ही वे उन आदेशों में कोई परिवर्तन या संशोधन कर सकते थे।

(ब) संचालक मण्डल
(i)        संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की आज्ञाओं और निर्देंशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया।
(ii)       इस एक्ट द्वारा संचालक मण्डल के पास केवल कम्पनी के व्यापारिक कार्यों की संचालन की शक्ति रही। यदि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल बोर्ड ऑफ डायेक्टर्स में हस्तक्षेप करे, तो उसे सपरिषद् इंग्लैण्ड नरेश के पास अपील करने का अधिकार दिया गया।
(iii)       संचालक मण्डल को कम्पनी के समस्त पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया, किन्तु उन्हें वापस बुलाने का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। संचालक मण्डल के अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल भी किसी भी पदाधिकारी को भारत से वापस बुला सकता था। गवर्नर जनरल की नियुक्ति के लिए संचालन मण्डल की स्वीकृति लेना आवश्यक था।

(स) स्वामी मण्डल
इस एक्ट का स्वामी मण्डल की शक्तियाँ बहुत कम कर दी गईं। उसको संचालक मण्डल के प्रस्ताव को रद्द या स्थागित करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया, यदि उस प्रस्ताव पर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने अपनी स्वीकृति दे दी हो।

(द) इंग्लैण्ड में कम्पनी की द्वैध शासन व्यवस्था
इस एक्ट के अनुसार इंग्लैण्ड में कम्पनी के भारती शासन पर नियंत्रण करने की शक्ति को दो प्रकार के अधिकारियों के हाथों में थी। पहले अधिकारी डायरेक्टर थे, जिनका कम्पनी के समस्त मामलों पर सीधा नियंत्रण था। संचालक मण्डल के पास कम्पनी के समस्त अधिकारियों की नियुक्ति तथा व्यापारिक कार्यों के संचालन की शक्ति थी। दूसरे अधिकार बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्य थे। ये ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि थे और इनका कम्पनी के शासन सम्बन्धी सब मामलोें पर प्रभावशाली नियंत्रण था।

(2)       भारत में केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित उपबन्ध
(i)        इस एक्ट में यह निश्चित किया गया कि संचालक मण्डल केवल भारत में काम करने वाले कम्पनी के स्थायी अधिकारियों में से ही गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्य नियुक्त करेगा।
(ii)       सपरिषद् गवर्नर जनरल को विभिन्न प्रान्तीय शासनों पर अधीक्षण, निर्देशन तथा नियंत्रण का पूर्ण अधिकार दिया गया।
(iii)       यह भी निश्चित कर दिया गया कि गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की अनुमति के बिना कोई युद्ध अथवा सन्धि नहीं कर सकेगा।
(iv)       पहली बार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजी राज्य के प्रदेश कहा गया। इस एक्ट में यह घोषणा की गई थी कि, भारत में राज्य विस्तार और विजय की योजनाओं को चलाना ब्रिटिश राष्ट्र की नीति, मान और इच्छा के विरूद्ध है। इस प्रकार, प्रान्तीय सरकारों पर केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण को दृढ़ बना दिया गया।

(3)       प्रान्तीय सरकारों से सम्बन्ध रखने वाले उपबन्ध
(i)        प्रादेशिक गवर्नरों की स्थिति को दृढ़ बनाने के लिए उनकी कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई। इनमें एक प्रान्त का कमाण्डर-इन-चीफ भी होगा।
(ii)       कम्पनी के केवल प्रतिज्ञाबद्ध कर्मचारियों से ही गवर्नर की कौंसिल के सदस्य नियुक्त किए जाने के व्यवस्था की गई।
(iii)       गवर्नरों तथा उसकी कौंसिल के सदस्यों की नियुक्ति संचालको द्वारा की जाती थी, परन्तु उनको हटाने या वापस बुलाने का अधिकार ब्रिटिश ताज ने अपने पास रखा।

(iv)       बम्बई तथा मद्रास की सरकार के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों को पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।
(v)       प्रादेशिक सरकारों के लिए सभी प्रकार के निर्णयों की प्रतिलिपियाँ बंगाल सरकार की सेवा में प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया गया।
(vi)       बंगाल की सरकार की आज्ञा के बिना प्रादेशिक सरकारे न तो युद्ध आरम्भ कर सकती थीं और नही उन्हें भारतीय राजाओं के साथ सन्धि आदि करने का अधिकार था।
(vii)      बंगाल सरकार के आदेशों की अवहेलना करने पर वह अधीनस्थ सरकार के गवर्नर को निलम्बित कर सकती थी।

इस प्रकार ये उपबन्ध भारत के एकीकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। जी.एन. सिंह के शब्दों में, 1784 के एक्ट ने भारत के एकीकरण को और बढ़ा दिया, इससे मद्रास और बम्भई के सपरिषद् राज्यपालों पर सपरिषद् महाराज्यपाल (गवर्नर जनरल) की शक्तियाँ बढ़ा दीं और उनकी ठीक-ठीक सीमा भी निर्धारित कर दी।

(4)       एक्ट के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण उपबन्ध
(i)        कम्पनी के कर्मचारियों को आदेश दिया गया कि वे देशी राजाओं से रूपए-पैसे का कोई लेन-देन न करें।
(ii)       कम्पनी के पदाधिकारियों को भेंट तथा रिश्वत लेने की सख्त मनाही कर दी गई।
(iii)       कम्पनी को अपनी व्यवस्था ठीक करने और आवश्यक कर्मचारियों की संख्या में कमी करने के लिए भी कहा गया।
(iv)       गवर्नरों को उन व्यक्तियों को गिरफ्तार करने का अधिकार दिया गया, जो किसी भी अधिकारी से गलत तथा गैर-कानूनी व्यवहार के दोषी पाए जाएँ।
(v)       भारत में अपराध करने वाले कम्पनी के कर्मचारियों के मुकदमों की सुनवाई के लिए इंग्लैण्ड में एक न्यायालय स्थापित किया गया। इसमें तीन न्यायाधीश, चार लार्ड सभा के सदस्य और छः कॉमन्स सभा के सदस्य होंगे।


एक्ट का महत्त्व
पिट्स इण्डिया एक्ट भारत के संवैधानिक इतिहास में बहुत महत्त्व है। इसने कम्पनी के मौलिक हितों पर आघात किए बिना उसे दृढ़ता प्रदान की और एक ऐसी शासन पद्धति का सूत्रपात किया, जो 1858 ई. तक प्रचलित रही। बर्क ने इस एक्ट के बार में लिखा था, अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इससे अधिक अच्छा तथा दक्ष उपाय सम्भवतः मनुष्य द्वारा नहीं बनाया जा सकता है।

(1)       कम्पनी के प्रशासन पर ससंदीय नियंत्रण की स्थापना-
इस एक्ट के द्वारा पहली बार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजी राज्य का प्रदेश कहा गया और उन पर ब्रिटिश सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित करने के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गई। इस बोर्ड का काम भारत में सैनिक तथा असैनिक प्रशासन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण करना था। इस बोर्ड में मंत्रिमण्डल के सदस्य भी थे। संचालक मण्डल के बोर्ड ऑफ कण्ट्रलो के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। कम्पनी की कार्यकुशलता को बढ़ाने के लिए गुप्त समिति का गठन किया गया इस एक्ट के द्वारा बम्बई तथा मद्रास की सरकारों पर बंगाल सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। इससे कम्पनी की नीतियों का इन सरकारों की नीतियों से मेल आसानी से होने लगा।

इस एक्ट के द्वारा कम्पनी के समस्त सैनिक और असैनिक मामलों पर ब्रिटिश संसद का अन्तिम नियंत्रण स्थापित हो गया। इल्बर्ट ने लिखा है, कम्पनी को ब्रिटिश सरकार की प्रतिनिधिक संस्था के प्रत्येक, तथा स्थायी नियंत्रण में रखने के सिद्धान्त को अपनाया। एस.आर. शर्मा के शब्दों में, पिट्स इण्डिया एक्ट ने इंग्लैण्ड में भारतीय मामलों के निर्देशक के मौलिक सिद्धान्त को ही बदल दिया। स्वामी मण्डल शक्तिहीन हो गया तथा संचालक मण्डल ब्रिटिश सरकार के पूर्णतः अधीन हो गया। लायल ने लिखा है कि, पिटस के इण्डिया एक्ट का तात्कालिक प्रभाव बहुत अधिक था और इसके स्पष्ट रूप से भारत सरकार के ढाँचे में सुधार हो गया। इस एक्ट ने उन सब गलत नियंत्रणों और बाधाओं को दूर कर दिया, जिनके कारण वारेन हेस्टिंग्स का अपनी कौंसिल तथा अधीनस्थ बम्बई और मद्रास की सरकारों में झगड़ा हुआ। इस एक्ट के द्वारा उन दोषों को दूर कर दिया गया था, जो उसने भारत सरकार के ढाँचे में बताये थे और उन उपायों को अपनाया गया, जो उसने बताये थे।

इस प्रकार, इस एक्ट के द्वारा कम्पनी पर ब्रिटिश संसद का वास्तविक नियंत्रण स्थापित हो गया, जिसके कारण रेग्यूलेटिंग एक्ट का एक बहुत बड़ा दोष भी दूर हो गया। इल्बर्ट ने लिखा है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री पिट ने कम्पनी के संविधान में परिवर्तन किए बिना ही, कम्पनी पर ब्रिटिश सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर दिया।

(2)       स्वामी मण्डल की शक्तियों पर आघात-
इस एक्ट द्वारा स्वामी मण्डल को शक्तिहीन बना दिया गया। वह भारत के सैनिक तथा असैनिक मालमों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। वह संचालकों के किसी ऐसे निर्णय का, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने स्वीकृति दे दी हो, नहीं बदल सकता था।

(3)       कम्पनी के भारतीय प्रदेशों का एकीककरण का प्रयास-
इस एक्ट ने कुशल प्रशासन तथा कम्पनी के भारतीय प्रदेशों के एकीकरण के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरल के हाथों में समस्त शक्तियों को केन्द्रित कर दिया। प्रादेशिक सरकारों के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। इस एक्ट की धारा 31 में स्पष्ट कहा गया था कि यदि प्रादेशिक सरकारें आज्ञाओं का उल्लंघन करेंगी, तो गवर्नर जनरल उन्हें निलम्बित कर सकेगा। इस प्रकार, इस नई नीति से कम्पनी के भारतीय प्रशासन में बहुमूल्य सुधार हुआ और एकीकरण की नीति को प्रोत्साहन मिला।

(4)       भारतीय शासन में सुधार-
लायल ने लिखा है कि पिट्स इण्डिया एक्ट ने भारत सरकार की कार्यप्रणाली में आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण सुधार किए। कौंसिल के सदस्यों की संख्या 4 से घटाकर 3 कर देने से गवर्नर जनरल और गवर्नरों की स्थिति दृढ़ हो गई। अब वे कार्यपालिका के वास्तविक प्रधान बन गए। उनके लिए अपनी कौंसिल पर नियंत्रण बनाए रखना आसान हो गाय। परिणामस्वरूप शासन प्रबन्ध की कार्यकुशलता में वृद्धि हुई।

(5)       गवर्नर जनरल की स्थिति का सुदृढ़ होना-
गवर्नर जनरल के पद का महत्त्व पहले से अधिक बढ़ गया, क्योंकि उसका इंग्लैण्ड के मंत्रिमण्डल के साथ घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर दिया। इससे ने केवल उसकी स्थिति ही सुदृढ़ हुई, अपितु उसकी प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई।

(6)       अहस्तक्षेप की नीति का उद्घाटन-
इस एक्ट द्वारा भारतीय राजाओं के प्रति एक नई नीति अपनाई गई। धारा 34 के अनुसार यह घोषणा की गई थी कि भारत में साम्राज्य विस्तार की नीति ब्रिटिश राष्ट्र के नीति, सम्मान और इच्छा के विरूद्ध है। अतः गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् संचालकों या गुप्त समिति की आज्ञा के बिना भारतीय राजाओं से युद्ध नहीं कर सकते थे। प्रादेशिक सरकारों पर भी इसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाया गया। भारत सरकार ने इस नीति का दृढ़ता से पालन किया। अहस्तक्षेप की नीति से भारतीय राजनीति में एक नये युग का आरम्भ हुआ और 1765 ई. जब अंग्रेजों के मित्र हैदराबाद के निजाम को मराठों ने खरदा के युद्ध में पराजित किया, तो अंग्रेजों ने उसकी सहायता नहीं की। परिणामस्वरूप उन्हें काफी हानि भी उठानी पड़ी।

(7)       सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना-
भारत में अंग्रेजों द्वारा किए गए अपराधों की सुनवाई करने के लिए इंग्लैण्ड में एक विशेष न्यायालय की स्थापना की गई। यह निश्चित रूप से एक अच्छा सुधार था।

(8)       उपहारों को लेने की मनाही-
भारतीयों के दृष्टिकोण से यह एक्ट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण था कि इसके द्वारा कम्पनी के पदाधिकारियों के लिए उपहार आदि लेना अपराध घोषित कर दिया गया और इस नियम की अवहेलना करने वालों के लिए कठोर दण्ड निश्चित किए गए।

(9)       इंग्लैण्ड में कम्पनी का दोहरा शासन-
इस एक्ट के अनुसार कम्पनी के शासन पर दोहरा नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। कम्पनी के राजनीतिक व शासन सम्बन्धी कार्यों पर नियंत्रण बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का था तथा व्यापारिक कार्यों पर संचालकों का था। यद्यपि यह व्यवस्था त्रुटिपूर्ण थी, तथापि 1858 ई. तक कम्पनी के भारतीय प्रशासन की आधारशिला बनी रही। एस.आर. शर्मा के शब्दो में, इस शासन पद्धति को 70 वर्ष से अधिक समय तक प्रचलित रहने का श्रेय अंग्रेज जाति की चारित्रिक उदारता को दिया जा सकता है, जिसने पद्धति के दोनों पक्षों को मिलकर काम करने में अधिक सहायता दी।

(10)      1858 ई. तक भारतीय संविधान का आधार-
यह एक्ट 1858 ई. तक भारतीय संविधान का आधार बना रहा। इल्बर्ट ने लिखा है कि, एक्ट के द्वारा जो नियंत्रणों की पद्धति कायम हुई, चाहे उसको कुछ बाद में सुधार भी किया गया है, परन्तु वह किसी न किसी रूप में 1858 ई. तक चलती रही।

पिट् के जीवन चरित के लेखक श्री जे. हॉलैण्ड ने इस एक्ट का महत्त्व इन शब्दों में व्यकत् किया है, भारत में निरंकुश अधिकार रखते हुए भी नया वायसराय ब्रिटिश संवैधानिक मशीन का केवल एक अनुबन्ध मात्र था। शायद यह पिट की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि उसने इस बात को समझ लिया कि शासन के प्राच्य और पाश्चात्य आदशों को किस प्रकार इस ढंग से मिलाया जाए कि जिससे बंगाल में तो कार्यवाही जोर-शोर से चल सके और स्वदेश में लोकप्रिय शासन की प्रगति पर आँच न आए। उसने भारत के वास्तविक शासक को उससे भी कहीं अधिक शक्तियाँ सोंपी, जितनी कि वारेन हेस्टिंग्स को प्राप्त थी, पर साथ ही उसने उन्हें राजा और पार्लियामेंट की इच्छा के अधिन कर दिया...।

पिट्स इण्डिया एक्ट के अनुसार इंग्लैण्ड में द्वैध शासन की स्थापना-
पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा कम्पनी के कार्यों को दो भागों में विभक्त किया गया-प्रशासनिक तथा व्यापारिक। राजनीतिक व शासन सम्बन्धी कार्यों पर नियंत्रण रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 6 सदस्यों का एक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल स्थापित किया, जबकि कम्पनी के व्यापारिक कार्यों का संचालकों के अधिकार में ही रहने दिया गया। कम्पनी के राजनीतिक और सैनिक कार्यों का संचालन डायरेक्टर करते थे, परन्तु उन्हें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के निर्देशों का पालन करना पड़ता था। इस प्रकार, लन्दन में भारतीय मालमों की देखभाल के लिए 1784 ई. में दोहरी शासन व्यवस्था की स्थापना की गई। इसी को कीथ ने आपस का निबटारा कहा है। यद्यिप द्वैध शासन व्यवस्था त्रुटिपूर्ण थी, तथापि 1858 ई. तक कम्पनी के प्रशासन का आधार बनी रही।
प्रो. स्पीयर के शब्दों में, यह शासन पद्धति क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन प्रणाली में भिन्न थी, क्योंकि इसमें दोनों शासकीय संस्थाओं की जिम्मेदारी निश्चित तथा स्पष्ट थी।

बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का अधिक शक्तिशाली होना
इस शासन व्यवस्था में संचालक मण्डल की अपेक्षा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के पास प्रशासन सम्बन्धी शक्तियाँ बहुत व्यापक थीं। बोर्ड के पास यह शक्ति थी कि संचालकों के द्वारा नियुक्त किए हुए कम्पनी के किसी भी कर्मचारी को वापस बुला सके। इसका परिणाम यह हुआ कि संचालक सिर्फ ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करते थे, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल चाहता था। बोर्ड ने कई बार इस शक्ति का प्रयोग भी किया। इस सम्बन्ध में दो घटनाओं का विवरण देना उपयोगी होगा। 1784 ई. संचालक मण्डल ने हालैण्ड को फोर्ट-सेण्ट जार्ज की सरकार का अध्यक्ष नियुक्त किया, परन्तु बोर्ड के अध्यक्ष डुण्डास ने इस नियुक्ति का विरोध किया। संचालक अपनी की हुई नियुक्ति पर अड़ गए और उन्होंने बोर्ड के अनुचित हस्तक्षेप का विरोध किया। बोर्ड के अध्यक्ष श्री डुण्डास ने संचालकों की इस बात को स्वीकार किया कि कानूनी दृष्टिकोण से उसे इन मामलों में हस्तक्षेप का अधीकार नहीं परन्तु उसने हालैण्ड को यह बात स्पष्ट कर दी कि वह ज्यों ही भारत पहुँचेगा, त्यों हीं उसे वापस बुला लिया जाएगा। परिणामस्वरूप संचालकों को हालैण्ड के स्थान पर डुण्डास के एक मित्र को नियुक्त करना पड़ा। 1806 में भी ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो गई थी और अन्त में बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष ने संचालकों द्वारा नियुक्त किए गए जार्ज बारलो को वापस इंग्लैण्ड बुला लिया। संक्षेप में, संचालक मण्डल किसी भी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त नहीं कर सकते थे, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल न चाहता हो। इस प्रकार व्यावहारिक रूप में बोर्ड का अधिकारियों की नियुक्ति में भी काफी हाथ था।

संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त संचालकों द्वारा जो आदेश कम्पनी के अधिकारियों को दिए जाते थे, उनको तब्दील करने और अपनी इच्छानुसार आदेश जारी करने का अधिकार बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल को था। बोर्ड को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक प्रशासन को निर्देंशन तथा नियंत्रण का अधिकार दिया गया था। इसलिए वह संचालक मण्डल द्वारा दिए जाने वाले आदेशों की जाँच-पड़ताल कर सकता था। एक्ट में यह भी व्यवस्था की गई कि संचालक जो भी संदेश और आदेश भारत भेजे, उनकी स्वीकृति बोर्ड ऑफ कंट्रोल से 15 दिन के अन्दर प्राप्त करना आवश्यक था। इस तरह से संचालकों को भारत से होने वाले पत्र-व्यवहार बोर्ड ऑफ कंट्रोल का नियंत्रण स्थापित हो गया। संचालकों का चेयरमैन अपनी सुविधा के लिए आदेशों को तैयार करने से पूर्व उन पर बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष की राय जान लेना था। यद्यपि आदेशों और निर्देशों को तैयार करने की शक्ति संचालकों के हाथ में थी, तथापि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का अध्यक्ष उनमें अपनी इच्छानुसार किसी प्रकार का संशोधन कर सकता था।

बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल संचालकों की इच्छा के विरूद्ध भी किसी प्रकार की तब्दीली भारत में भेजे जाने वाले आदेशों में कर सकता था। इसीलिए के.वी. पुन्निया ने लिखा है, नियंत्रण मण्डल के पास संशोधन करने की शक्ति इतनी व्यापक थी कि कई बार उसके द्वारा संशोधित पत्र वे अर्थ देने लगते थे, जो संचालकों द्वारा मौलिक रूप में प्रस्तुत किए गए पत्रों के अर्थों से सर्वथा भिन्न होते थे।

अत्यावश्यक मामलों में बोर्ड की शक्तियाँ और भी अधिक थीं। वह संचालकों को विशेष प्रकार का प्रलेख तैयार करने के लिए आदेश दे सकता था। उनके इन्कार करने पर वह स्वयं प्रलेख तैयार कर सकता था और उसको भारत भेजने के लिए संचालकों को आदेश दे सकता था। अपने आदेशों का संचालकों से पालन कराने के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ब्रिटिश न्यायालय से भी लेख जारी करवा सकता था। बोर्ड की इस शक्ति से परिचित होने के कारण संचालक मण्डल के सदस्य साधारणतया उसकी इच्छा के विरूद्ध चलने का साहस नहीं करते थे।

इस प्रकार संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कंट्रोल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य हो गया था। बोर्ड को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक शासन प्रबन्ध के अधीक्षण, निर्देंशन तथा नियंत्रण का अधिकार भी दिया गया था। संचालन मण्डल सिर्फ उसी व्यक्ति को गवर्नर जनरल के पद पर नियुक्त करता था, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल चाहता था। अतः वह स्वाभाविक था कि भारत के गवर्नर जनरल संचालकों के आदेशों की अपेक्षा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के आदेशों को अधिक महत्त्व देते थे और कई बार संचालक मण्डल के आदेशों की अवहेलना करते हुए भी बोर्ड के आदेशों का पालन करते थे। धीरे-धीरे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने पहले की अपेक्षा अधिक शक्ति प्राप्त कर ली। उसका भारतीय प्रशासन पर इतना प्रभाव बढ़ गया कि उसकी गुप्त समिति की सहायता से एक के बाद एक गवर्नर जनरल भारत में सचालकों की इच्छा के प्रतिकूल भी भारतीय रियायतों के प्रति आक्रमणात्मक नीति अपनाते रहे।

उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्यों-ज्यो समय बीतता गया, त्यों-त्यों कम्पनी के शासन पर बोर्ड का प्रभाव बढ़ता गया और संचालक मण्डल का प्रभाव कम होता गया। संचालक मण्डल के अध्यक्ष हैनरी जॉर्ज टक्कर ने 1838 में ड्यूक ऑफ वेलिंगटन के नाम लिखे हुए एक पत्र में संचालकों की दुर्दशा के सम्बन्ध में यह शब्द लिखे, अब भी मैं बड़े कष्ट के साथ यह अनुभव करता हूँ कि हम डूबते जा रहे हैं। हमारा वजन और प्रभाव पिछले दिनों कम हुआ है और कम होता जा रहा है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे संचालकों के अधिकार कम होते गए। पुन्निया के शब्दों में, इस अनुभूति के कारण कि वे कष्ट में हैं, निदेशक समिति अपने वैध अधिकारों का भी पूरा प्रयोग करने की इच्छुक नहीं रहीं होगी, जबकि नियंत्रण बोर्ड का अध्यक्ष अपनी शक्तियों का प्रयोग पहले की अपेक्षा भी अधिक उत्साह के साथ करता होगा।

संचालक मण्डल का प्रभावशील न होना-
बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के इतना शक्तिशाली होने से हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि कम्पनी के शासन पर संचालक मण्डल का प्रभाव बहुत क्षीण हो गया था। संचालक मण्डल अब भी गवर्नर जनरल तथा बोर्ड के बीच पत्र-व्यवहार का एक महत्त्वपूर्ण साधन था। भारत भेजे जाने वाले सब पत्र और आदेश या तो उसकी या उसकी गुप्त समिति के द्वारा भेजे जाते थे। बोर्ड भारतीय मामलों के सम्बन्ध में संचालकों के परामर्श को बड़ा महत्त्व देता था, क्योंकि वे कम्पनी के शासन कार्य में बहुत अनुभवी होते थे। इसके अतिरिक्त शासक का बहुत सारा कामकाज व्यावहारिक रूप से उनके द्वारा होता था। इसलिए भी उनका शासन पर प्रभाव होना स्वाभाविक था। श्री ए.बी. कीथ लिखते हैं कि, यद्यपि द्वैध शासन व्यवस्था में संचालक मण्डल सैद्धान्तिक रूप से भारतीय प्रशासन से पृथक् था, तथापि उसका इसके संचालक पर काफी प्रभाव था। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष हैनरी जार्ज टक्कर के शब्दों में, यह सत्य है कि आपने भारतीय प्रशासन का नियंत्रण राष्ट्रीय सरकार को सौंप दिया है लेकिन इस पर भी हमारी ऐसी स्थिति है कि हम इस पर अपना प्रभाव डाल सकते हैं।

संचालकों के पास कर्मचारियों को नियुक्त करने का महत्त्वपूर्ण अधिकार भी था। भारत में गवर्नर जनरल से लेकर छोटे से छोटे कर्मचारी उनके द्वारा नियुक्त किए जाते थे। इससे उनका प्रभाव, प्रतिष्ठा और गौरव और भी बढ़ जाता था। निस्सन्देह बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल संचालकों द्वारा नियुक्त किए गए लोगों को भारतवर्ष से वापस बुला सकता था, लेकिन इससे संचालक मण्डल का महत्त्व कम नहीं होता था। प्रथम तो इसलिए कि पदाधिकारीयों को बारत से बार-बार बुलना सम्भव नहीं था। दूसरे, ऐसा करना प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी अनुचित था। अतः बोर्ड ऑफ कंट्रोल व्यवहार में उस शक्ति का प्रयोग कुछ विशेष मामलों में ही करता था। इस प्रकार, संचालक मण्डल कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए पूर्णतः स्वतंत्र था। दैनिक मामलों में कम्पनी के भारतीय कर्मचारियों को हटाने की शक्ति संचालकों के पास ही थी। प्रो. स्पीयर लिखते हैं कि संचालकों की दृष्टि में कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार इतना महत्त्वपूर्ण था कि उन्होंने अपनी राजनीतिक शक्तियों का बलिदान करके भी इसे अपने पास बनाए रखना उचित समझा। इसके अतिरिक्त संचालकों को अपनी इच्छा के विरूद्ध बोर्ड ऑफ कंट्रोल द्रारा नियुक्ति कए गए व्यक्तियों को भारत से वापस बुला लेने का भी अधिकार था। इस सम्बन्ध में दो घटनाओं का उल्लेख करना उपयोगी होगा। सन् 1825 ई. में संचालकों ने लार्ड एम्हर्स्ट को बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की इच्छा के विरूद्ध भारत से वापस बुलाने की धमकी दी और 1844 ई. में एलबरो को वापस बुला लिया।

कम्पनी के संचालकों के अधीन हजारों अनुभवी अधिकारी काम करते थे और कम्पनी के कार्यालय, ईश्ट इण्डिया हाऊस के सभी रिकार्ड उनके अधिकार में थेे। अतः भारत के शासन सम्बन्धी नई योजनाएँ बोर्ड की अपेक्षा वे अधिक सुगमता तथा योग्यता से तैयार कर सकते थे। इसके अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की दिलचस्पी साधारयता भारती अधिकारियों की विदेशी नीति निर्धारित करने तथा राजनीतिक मामलों को सुलझाने में होती थी, जिसके कारण संचालकों को कम्पनी के आन्तरिक शासन कार्य में महत्त्वपूर्ण भाग लेने का अवसल मिल जाता था। संचालकों को यह भी अधिकार था कि वे दूषित प्रशासन के उदाहरणों को जनता के सम्मुख खोलकर रख सके। संचालक मण्डल के अध्यक्ष श्री टक्कर के शब्दों में, जब तक इस समिति में स्वतंत्र और प्रतिष्ठित व्यक्ति रहेंगे, तब तक वे न केवल अपने ज्ञान और अनुभव द्वारा सरकार की मशीन को उचित निर्देश देने में सहायता दे सकते हैं, अपितु वे किसी बेईमान सरकार की मनमानी की रोकथाम करने में भी बड़ा स्वस्थ प्रभाव डाल सकते हैं।

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि संचालक मण्डल का कम्पनी के मामलों पर अब भी काफी प्रभाव था। इसके अतिरिक्त व्यापारिक मामलों में संचालकों के हाथ में पूर्ण शक्ति थी। इसलिए यह कह सकते हैं कि बोर्ड ऑफ कंट्रोल की सर्वोच्चता के होते हुए भी संचालकों के हाथ में काफी शक्तियाँ रह गई थीं। सन् 1918 की संवैधानिक रिपोर्ट का उल्लेख करने वालों ने इस द्वैध शासन व्यवस्था का मूल्यांकन इन शब्दों में किया थाष हमें वह परिणाम नहीं निकालना चाहिए कि नियंत्रण मण्डल के अध्यक्ष के सर्वाधिक महत्त्व ने संचालकों के हाथों में कोई वास्तविक नियंत्रण नहीं दिया था। वे अब भी शक्ति सम्पन्न थे। उनके पास अब भी कार्य को आरम्भ करने का अधिकार था। वे ब्रिटिश सरकार के पास भारतीय मामलों के सम्बन्ध में जानने के लिए ज्ञान का भण्डार थे। शासन की जिम्मेदारी बेशक मण्डल के कन्धों पर थी, लेकिन उसकी कार्य-विधि पर संचालकों का प्रभाव अवश्य था।

इस सब बातों के होते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने संचालक मण्डल को शनैः शनैः उसकी शक्तियों से वंचित कर दिया। पुन्निया के शब्दों में, ज्यों-ज्यों इस शताब्दी के वर्ष बीतते गए, त्यों-त्यों उनसे एक के बाद एक शक्ति छिनती गई।

द्वैध शासन व्यवस्था की समीक्षा
पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण थी। उसका अधिक तक सुचारू रूप से कार्य करना कठिन था। इसका जन्मदाता पिट भी सव्यं उसकी त्रुटियों को भली-भाँति जानता था।उसने बिल पस्तुत करते समय यह शब्द कहे, भारत जैसे विशाल तथा सुदूर देश के लिए मेरे या किसी अन्य व्यक्ति के लिए एक त्रुटि-रहित शासन पद्धति की व्यवस्था करना असम्भव है। मि फॉक्स ने भी अनेक सबल तर्कों के आधार पर इस शासन व्यवस्था की बड़े प्रभावशाली शब्दों में निन्दा की थी। इस व्यवस्था के मुख्य-मुख्य गुणों तथा अवगुणों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-

इंग्लैण्ड में द्वैा शासन की स्थापना
द्वैा शासन व्यवस्था के दोष
द्वैध शासन व्यवस्था के प्रमुख दोष निम्नलिखित थे-
(1)       इस द्वैध शासन व्यवस्था की प्रथम त्रुटि यह थी कि यह प्रणाली अस्वस्थ सिद्धान्तों पर आधिरत थी। इसके अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल दो ऐसे शासकीय संगठन थे, जो परस्पर हितों के विरोधी होने के कारण सुचारू रूप से काम नहीं कर सकते थे। अतः वे मतभेद होने की अवस्था में प्रायः षड्यन्त्र रचते थे, जो कि शासन प्रबन्ध की कुशलता तथा सुदृढ़ता के लिए घातक सिद्ध होते थे।
(2)       इस शासन व्यवस्था की दूसरी त्रुटि यह थीकि इसमें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल की शक्तियाँ स्पष्ट रूप से निश्चित नहीं थीं। इसलिए इनमें झगड़ा होना स्वाभाविक था। चूँकि इस एक्ट के किसी मामले के लिए जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन था, अतः इससे गैर-जिम्मेदारी की भावना उत्पन्न हुई। परिणामस्वरूप सरकार की एकता नष्ट हो गई। 1853 ई. में लार्ड डिजरैली ने शासन की इस त्रुटि की ओर संकेत करते हुए कहा था, मेरी समझ में नहीं आता कि भारत जैसे विशाल साम्राज्य का वास्तविक शासन कौहन है और किसको इस शासन के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
(3)       इस दोहरी शासन व्यवस्था की तीसरी त्रुटि यह थी कि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल भारतीय शासन के सम्बन्ध में नीति तो निर्धारित करता था, परन्तु उसको लागू करने के लिए पदाधिकारी नियुक्त करना संचालक मण्डल का काम था। अतः संचालक जिन बातों को नहीं चाहता था, उसको लागू करने में बहाने कर विलम्ब कर सकता था। प्रो. एस.आर. शर्मा के शब्दों में, यदि कानून का अक्षरशः पालन किया जाता, इंग्लैण्ड स्थिति नियंत्रण मण्डल तथा संचालक मण्डल में भारतीय मामलों के नियंत्रण के सम्बन्ध में अनेक कठिनाइयाँ उतपन्न होतीं और शीघ्र ही दोहरी शासन प्रणाली का पतन हो जाता। परन्तु सौभाग्य से ये दोनों अंग अपना-अपना कार्य इस प्रकार करते रहे कि त्रुटिपूर्ण होने परभी यह पद्धति 1858 ई. तक कम्पनी के भारतीय प्रशासन का आधार बनी रही।
(4)       चौथी त्रुटि यह थी कि इसमें देरी होने की बहुत सम्भावना थी। प्रत्येक कार्य सम्पन्न होने में आवश्यकता से अधिक समय लग जाता था। जब कोई भी आदेश-पत्र भारत में भेजना होता था, तो उसको पहले संचालक मण्डल तैयार करता था। पिर उसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष की सहमति के लिए प्रस्तुत किए जाता था। वहाँ पर उस पर विचार करने और संशोधित करने में कई दिन लग जाते थे। फिर वह संचालक मण्डल के पास भेजा जाता था। इस संशोधित पत्र के अनुसार संचालक मण्डल फिर एक नया प्रलेख तैयार करता था। इस तरह किसी काम को निपटाने में महीनों लग जाते थे। साधारणता भारत सरकार द्वारा लन्दन भेजे गये पत्र का उत्तर दो वर्ष के बाद प्राप्त होता था। इस असाधरण विलम्ब के लिए प्रशासन की इस त्रुटि पर प्रकाश डालते हुए कहा था, लन्दन से भारत को भेज जाने वाले प्रत्येक महत्त्वपूर्ण आदेश-पत्र को मण्डल के कार्यालय कैनन रो और संचालक मण्डल के कार्यालय इण्डिया हाउस के बीच कई बार उधर से इधर और इधर से उधर आना-जाना पड़ता था। कार्य-विधि के चक्कर में उसे काफी देर लग जाती थी।
इस अनावश्यक तथा असाधारण देरी के कारण जब भारत सरकार को महीनों तक किसी मामले पर निर्देश प्राप्त नहीं होते थे, तो उसको विभिन्न शासकीय कठिनाइयों को समाना करना पड़ता था और अत्यावश्यक मामलों को भारत सरकार अपनी इच्छानुसार मजबूर होकर निपटा देती थी। परिणामस्वरूप बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल की ओर सेबाद में पहुँचने वाले आदेश-पत्र निरर्थक हो जाते थे। एस.आर.शर्मा के शब्दों में, इंग्लैण्ड से भारतीय मामलों का संचालक बहुत बार मरणोत्तर जाँच जैसा होता था।

(5)       इस शासन व्यवस्था में कम्पनी के भारतीय प्रशासन पर ब्रिटिश पार्लियामेंट का प्रभावशाली नियंत्रण नहीं था, क्योंकि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को भारत सरकार के खर्चे और आमदनी के वार्षिक हिसाब को पार्लियामेन्ट में रखना नहीं पड़ता था।
(6)       इस शासन व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह भी था कि गवर्नर जनरल को वापस बुलाने की शक्ति बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल दोनों के पास थी। कई बार दोनों गवर्नर जनरल से ्‌पनी-अपनी परस्पर विरोधी बातों के अनुसार कार्य करने के लिए दबाव डालते थे। इसलिए गवर्नर जनरल को विचित्र कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। वैसे भी उसके लिए दोनों स्वामियों को सन्तुष्ट तथा प्रसन्न रखना कठिन कार्य था। इससे भारतीय शासन में अदक्षता उत्पन्न होती थी।
(7)       द्वैध शासन व्यवस्था 1784 ई. से 1858 ई. तक प्रचलित रही। इस दीर्घकाल में सिर्फ अफगान युद्ध के मामले को लेकर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल में मतभेद हुआ था। अधिकांश छगड़े उच्च पदाथिकारियों की नियुक्ति, उसको पदोन्नति देने अथवा व्यक्तिगत मतभेद के कारण होते रहे। 1786 ई. में बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने कम्पनी के खर्चे पर चार ब्रिटिश रेजीमेण्ट भारत भेजी। इस प्रश्न को लेकर बोर्ड और संचालक मण्डल के बीच विवाद उत्पन्न हो गया। संचालकों ने बोर्ड के इस पग का विरोध किया, क्योंकि उनके मतानुसार बोर्ड को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं था। वह विवाद दो वर्ष तक चलता रहा। अन्त में पिटने 1788 में एक बिल पेश किया, जिसके द्वारा बोर्ड को इस सम्बन्ध में सर्वोच्च अधिकार दे दिए गए।

द्वैा शासन व्यवस्था के गुण

यद्यपि द्वैध शासन व्यवस्था में अनेक दोष विद्यमान थे, तथापि वह अनेक गुणों के कारण 1858 ई. तक कम्पनी के शासन का आधार बनी रही। इस व्यवस्था की प्रथम विशेषता यह थी कि कम्पनी का व्यापारिक प्रबन्ध तथा पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार संचालक मण्डल के पास था। अतः संचालक भी इस अधिकारों से सन्तुष्ट थे। इसके अतिरिक्त भारत का प्रशान संचालकों के हातों मे ही रहने दिया गया, परन्तु बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का उन पर अन्तिम नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। मि. पिट ने इस व्यवस्था के सम्बन्ध में यह शब्द कहे थे, इस नई शासन प्रणाली की व्यवस्था करने में न तो कम्पनी के अधिकार-पत्र में हस्तक्षेप किया गया है और नही उसे भारतीय प्रदेशों के वंचित किया गया है। केवल कम्पनी के संविधान में इस प्रकार के परिवर्तन किए गए हैं, जिनसे वह राष्ट्रीय हितों की उचित ढंग से सेवा कर सके।
1786 का अानिियम
रेल्गूलेटिंग एक्ट का एक प्रमुख दोष यह था कि गवर्नर जनरल अपनी कौंसिल को समक्ष असहाय था। इस दोष को दूर करने के लिए 1786 ई. तक कोई कदम नहीं उठाया गया। जब लार्ड कार्नवालिस वारेन हेस्टिंग्स के स्थान पर गर्वनर जनरल बना, तब उसने गर्वनर जनरल के पद को स्वीकार करने के लिए अपनी एक शर्त रखी कि गवर्नर जनरल को कौंसिल के निर्णय पर वीटो लगाने और विशेष परिस्थितियों में आवश्यकतानुसार अपनी इच्छापूर्वक काम करने का अधिकार दिया जाए। 1786 ई. में 1784 एक्ट का संशोधन कर दिया गया और लार्ड कार्नवालिस को निषेधाधिकार प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त उसे कौंसिल की इच्छा के विरूद्ध निर्णय लेने का अधिकार भी दिया गया।


1793 से 1854 ई. तक के चार्टर एक्ट्स
1784 ई. में पिट्स इण्डिया के द्वारा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना हुई थी। उसके द्वारा कम्पनी के प्रशासन पर नियंत्रण स्थापित हो चुका था। परन्तु ब्रिटिश सरकार इससे पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं थी। अतः आगामी 70 वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के प्रशासन पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया। अपनी इस नीति के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने 1857 से 1853 के बीच चार चार्टन एक्ट्स पारित किए, जिससे कम्पनी की शक्तियाँ कम होती गईं और भारत में एक शासकीय पद्धति का विकास हुआ।

1. 1793 का चार्टर एक्ट
लार्ड कार्नवालिस के शासन काल के अन्तिम दिनों में संसद ने 1793 का चार्टर एक्ट पारित किया। इस एक्ट की धाराएँ संख्या में बहुत अधिक थीं, परन्तु इसके द्वारा कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए। कीथ ने लिखा है कि यह एक्ट संगठन की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पग था, जिसमे पूर्वगामी एक्टों की बहुत-सी धाराओं को सम्मिलित किया गया था। डॉ. बनर्जी ने कहा कि, "दृढ़ भूतिकरण की संविधि द्वारा कोई बड़ा संवैधानिक परिवर्तन नहीं लाया गया।"

एक्ट के पास होने के कारण-
1773 ई. में कम्पनी को बीस वर्ष के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने की आज्ञा दी गई थी। यह समय 1793 ई. मे समाप्त हो गया। अतः कम्पनी के अधिकारियों ने चार्टर एक्ट के नवीनीकरण के लिए ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की। कम्पनी के सौभाग्य से उस समय सारे राष्ट्र की रूचि फ्रांस के साथ हो रहे युद्ध में थी। अतः इंग्लैण्ड के कुछ ही नगरों के व्यापारियों ने यह माँग कि भारत के साथ व्यापार करने की स्वतंत्रता सबको दी जाए, लेकिन बोर्ड ऑफ कण्ड्रोल का अध्यक्ष तथा पिट कम्पनी के पक्ष में थे, इसलिए ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने बिना किसी विशेष आनाकानी के 1793 के एक्ट पारित कर कम्पनी के चार्टर का बीस वर्ष के लिए नवीनीकरण कर दिया। पिट के शब्दों में, यह एक्ट इतनी शान्ति के पास हुआ कि उसका उदाहरण संसद के इतिहास में उपलब्ध नहीं होता। यहाँ तक कि समाचार-पत्रों में भी इस एक्ट को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। कीथ के शब्दों में, यह सारतः एक संघटित करने वाली कार्यवाही थी और इसमें जोर परिवर्तन हुए थे, उसका असर तफसील की बातों पर पड़ता था। डॉ. बनर्जी ने भी कहा है कि, इस संघटन के अधिनियम (स्टेच्यूट) द्वारा कोई संवैधानिक परिवर्तन नहीं किया गया।

एक्ट की प्रमुख धाराएँ
(1)       इस एक्ट द्वारा कम्पनी को 20 वर्ष के लिए दुबारा पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया।
(2)       इस अधिकार-पत्र के द्वारा कम्पनी के आर्थिक ढाँचे को नियमित किया गया। वह अनुमान लगाया गया कि कम्पनी को प्रतिवर्ष 12,39,241 पौण्ड की बचत होगी। इस वार्षिक बचत में से पाँच लाख पौण्ड तो कम्पनी के ऋणों को चुकाने के लिए दिए जाएँगे और पाँच लाख पौण्ड का उपयोग लाभांश को 8 से 10 प्रतिशत करने के लिए किया जाएगा। लेकिन जी.एन. सिंह के शब्दों में, यह कल्पित बचत कभी फलीभूत नहीं हुई और हालाँकि अंशधारियों को यह लाभ हो गया कि लाभांश 8 से 10 प्रतिशत कर दिया गया, किन्तु ब्रिटेन को अपने हिस्से के पाँच लाख पौण्ड प्रतिवर्ष कभी प्राप्त नहीं हुए।
(3)       नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों और कर्मचारियों को भारतीय कोष से वेतन देने की व्यवस्था की गई। इस प्रथा के कई दुष्परिणाम निकले परन्तु यह प्रथा 1919 के अधिनियम के लागू होने तक जारी रही।
(4)       प्रत्येक प्रान्त का शासन एक गवर्नर और तीन सदस्यों की कौंसिल को सौंप दिया गया। प्रान्तीय कौंसिल के सदस्य केवल वही व्यक्ति हो सकते थे, जिन्हें नियुक्ति के समय कम्पनी के कर्मचारी के रूप में काम करते हुए भारत में कम से कम बारह वर्ष हो गए हों।
(5)       गवर्नर जनरल तथा गवर्नर को अपनी कौंसिल के उन निर्णयों की उपेक्षा करने का अधिकार दिया गया, जिनसे भारत में शान्ति-व्यवस्था, सुरक्षा तथा अंग्रेजी प्रदेशों के हितों पर किसी प्रकार का भी प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो। उन्हें न्याय, विधि तथा कर सम्बन्धी मामलों में कौंसिल के निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था।
(6)       प्रधान सेनापति किसी भी कौंसिल का सदस्य नहीं होता, जब तक उसको विशेष रूप से संचालकों द्वारा सदस्य नियुक्त न किया जाए। इससे पूर्व प्रधान सेनापति के लिए कौंसिल का सदस्य होना जरूरी था।
(7)       सपरिषद् गवर्नर जनरल को प्रान्तीय सरकारों के सैनिक तथा असैनिक शासन प्रबन्ध, राजस्व संग्रह तथा भारतीय रियासतों के साथ युद्ध और सन्धि से सम्बन्धित मामलों पर नियंत्रण तथा निर्देशन का अधिकार दिया गया।

(8)       गवर्नर जनरल, गवर्नर, प्रधान सेनापति तथा कम्पनी के उच्च पदाधिकारियों को भारत से बाहर जाने की छुट्टी नहीं मिल सकती थी, जब तक वे अपने पद पर कार्य करेंगे। यदि कोई अधिकाबी बिना अनुमति लिए भारत से बाहर जाएगा, तो उसका त्याग-पत्र समझा जाएगा।
(9)       यह व्यवस्था की गई कि जब गवर्नर जनरल किसी प्रान्त का दौरा करेगा, तो उस समय प्रान्तयी शासन प्रबनध गवर्नर के स्थान पर गवर्नर जनरल के हाथों में होगा। गवर्नर जनरल बंगाल में अपने अनुपस्थिति के समय का काम चलाने के लिए किसी भी कौंसिल के सदस्य को अपनी कौंसिल का उपाध्यक्ष नियुक्त कर देगा।
(10)      कलकत्ता के सर्वोच्च न्यायालय का नौसैनिक क्षेत्राधिकार बढ़ाकर खुले समुद्रों तक कर दिया गया।
(11)      इस अधिनियम में यह बात फिर दुहराई गई कि भारत में कम्पनी द्वारा राज्य विस्तार करना और विजय की योजनाओं चलाना ब्रिटिश राष्ट्र की नीति, प्रतिष्ठा और उसके मान के विरूद्ध है। परन्तु जैसाकि जी.एन.सिंह ने लिखा है, परिस्थितियों के दबाव के कारण और मौके पर काम कर रहे व्यक्तियों की महत्त्वकांक्षाओ के कारण वास्तविक व्यवहार में इससे ठीक उल्टी ही नीति अपनाई गई।
(12)      यह व्यवस्था की गई कि नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों के लिए प्रिवी कौंसिलर होना आवश्यक नहीं था।
(13)      गवर्नर जनरल, गवर्नरों और प्रधान सेनापति की नियुक्ति के लिए इंग्लैण्ड के सम्राट की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई।
(14)      कम्पनी के कर्मचारियों के सम्बन्ध में ज्येष्ठता के सिद्धान्त का कठरोता से पालन किया जाएगा। दूसरे शब्दों में, यदि गवर्नर जनरल या गवर्नर का पद रिक्त हो जाए, तो उस पद पर स्थायी नियुक्ति होने तक परिषद् के सदस्यों में सबसे ऊँचे ओहदे वाला सदस्य (प्रधान सेनापति के सिवाय) उस पद पर काम करेगा।
(15)      शराब बेचने वालों के लिए लाइसैन्स आवश्यक कर दिया गया।
(16)      सपरिषद् गवर्नर जनरल को किसी भी प्रेसीडेन्सी (बम्बई या मद्रास) के नागरिक सेवा के किसी भी सदस्य को शान्ति के न्यायाधीश नामक न्यायाधिकारी नियुक्त करने का अधिकार प्राप्त किया गया। ये अधिकार कम्पनी के सम्मति-पत्रित कर्मचारियों में से नियुक्त किए जाने थे। (17)       उपहार आदि लेना दुराचरण तथा अपराध घोषित किया गया और इसके लिएं दोषी व्यक्ति को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की गई।
(18)      कम्पनी के असैनिक कर्मचारियों को पदोन्नति देने के सम्बन्ध में नियम बनाए गए।
(19)      गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल को प्रेसीडेन्सी नगरों में सड़कों की सफाई, देख-रेख और मराम्मत करने के लिए मेहतरों की नियुक्ति करने का अधिकार दिया गया। वे इन बस्तियों में स्वच्छता कर उप-शुल्क लगाकर इस कार्य के लिए आवश्यक घन भी प्राप्त कर सकते थे।
(20)      कम्पनी को 20 वर्ष के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का अधिकार दे दिया गया था, परन्तु साथ ही निजी व्यापार के लिए तीन हजार टन का माल व्यापार करने की अनुमति दे दी गई थी। परन्तु इस अधिकार के प्रयोग में अनेक प्रतिबन्ध थे। अतः इसका कभी भी प्रयोग नहीं किया गया।

एक्ट का महत्त्व
इस एक्ट का कोई संवैधानिक महत्त्व नहीं था। इसके द्वारा भारतीय शासन व्यवस्था में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया था। फिर भी, भारतीय संविधान पर इसका प्रभाव बहुत लम्बी अवधि तक रहा। इस चार्टर की मुख्य विशेषता यह थी कि इसके द्वारा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्यों को भारतीय कोष से वेतन देने की व्यवस्था की गई। यह गन्दी प्रथा 1919 का एक्ट पास होने तक जारी रही। इसके परिणामस्वरूप भारत को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी। जी.एन.सिंह ने लिखा है कि इस चार्टर के साथ यह बुरी रूढ़ि स्थापित हुई, जो 1919 ई. तक अपने बुरे परिणामों के साथ चलती रही।

पी.ई. रॉबर्टस् ने इस चार्टर एक्ट के सम्बन्ध में लिखा है, संयोग देखिए कि इधर कार्नवालिस कम्पनी की सेवा से निवृत हुआ और उधर कम्पनी के राजपत्र के नवीनीकरण की तिथि आ पहुँची। यह यह तिथि इस समय से एकवर्ष पहले उपस्थित हुई होती, तो कम्पनी को सचमुच एक भयंकर समस्या का सामना करना पड़ता, क्योंकि उस समय जन-भावना कम्पनी के कुशासन एवं व्यावसायिक एकाधिकार के एकदम विरूद्ध थी, किन्तु अब स्थिति कुछ ओर थी। कार्नवालिस के सुधारों ने जनाक्रोश को ठण्डा कर दिया था। इसलिए जब लिवरपूल, बिस्टल, ग्लासगो, मैनचेस्टर, नार्विख, पेल्जे तथा एक्जीटर नामक महत्त्वपूर्ण नगरों के कम्पनी के भारत व्यापार में हिस्सा बँटाने की याचिका प्रस्तुत की, तो मंत्रिमण्डल ने कम्पनी के राजपत्र की अवधि 24 वर्ष और बढ़ा दी एवं निजी समुद्र व्यापारियों को केवल 3000 टन वार्षिक पोत परिवहन की अनुमति दी।

2. 1813 का चार्टर एक्ट

1793 के चार्टर के बाद सन् 1813 में एक और एक्ट पास किया गया। यह एक्ट पहले चार्टर एक्ट की अपेक्षा में अधिक महत्त्वपूर्ण था। इस एक्ट से कम्पनी के एकाधिकार को आघात पहुँचा। इसमें भारतीयों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की गई। इसके अतिरिक्त इस एक्ट में कम्पनी के भारतीय प्रदेशों पर ब्रिटिश सम्राट की प्रभुसत्ता पर बल दिया गया।

एक्ट के पास होने के कारण
1793 ई. के एक्ट के द्वारा कम्पनी को पूर्वी देशों (भारत एवं चीन आदि) के साथ व्यापार करने का एकाधिकार 20 वर्ष के लिए दिया गया था। यह अवधि 1813 ई. में समाप्त हो गई थी। अतः कम्पनी के संचालकों ने अधिकार-पत्र के नवीनीकरण के लिए संसद से प्रार्थना की। उस समय परिस्थिति बहुत बदल चुकी थी तथा अनेक नई समस्याएँ उत्पन्न हो गई थीं। निम्नलिखित कारणों से कम्पनी के व्यापारिक विशेषाधिकारों को जारी रख पाना सम्भव नहीं था।
(1)       कम्पनी के एकाधिकार के विरोध का प्रथम कारण यह था कि 1808 ई. से फ्रान्स के शासक नेपोलियन ने ब्रिटिश व्यापार के लिए यूरोप महाद्वीप की नाकेबन्दी कर दी थी जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजों के व्यापार को बहुत गहरा धक्का पहुँचा था। इसलिए अंग्रेज व्यापारियों ने कहा कि कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर सब देशवासियों को भारत के साथ व्यापार करने की स्वतंत्रता दी जाए, ताकि नेपोलियन की महाद्वीपीय व्यवस्था से हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति हो सके।

(2)       कम्पनी के दुर्भाग्य से उस समय ऐडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित व्यक्तिवादी सिद्धान्त इंग्लैण्ड में बहुत लोकप्रिय था। अतः वहाँ का व्यापारी वर्ग कम्पनी के एकाधिकार पर आक्रमण करने लगा। उसने यह माँग की कि पूर्वीं देशों से व्यापार करने का अधिकार केवल कम्पनी को ही नहीं होना चाहिए, बल्कि सारी ब्रिटिश प्रजा को होना चाहिए। इस प्रकार, व्यापारिक वर्ग ने सभी लोगों को स्वतंत्र व्यापार का अधिकार देने के लिए आन्दोलन चलाया। सरकार के लिए इस माँग की अवहेलना करना कठिन हो गया। लार्ड मैलविल्ले ने इन परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए ही सन् 1811 में संचलाक मण्डल को यह चेतावनी दी थी, यदि कम्पनी के कर्त्ता-धर्त्ता के व्यापारियों को भारत में व्यापार में भाग नहीं लेने देंगे, तो ब्रिटिश सरकार के लिए संसद के पास कम्पनी के पक्ष में सिफारिश करना असम्भव होगा। संक्षेप में, इंग्लैण्ड में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार का प्रबल विरोध हो रहा था।

(3)       ईसाई धर्म प्रचारकों ने पार्लियामेन्ट के अन्दर और बाहर यह आन्दोलन चलाया कि उन्हें भारत में धर्म प्रचार के लिए विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। विलम्बर फोर्स तथा कुछ अन्य लोगों ने भारत सरकार को प्रेरणा दी कि वह भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए सक्रिय कदम उठाए। कम्पनी के संचालक ईसाइयत के प्रचार के ईच्छुक नहीं थे। अतः उन्होंने इस सम्बन्ध में निम्मलिखित युक्तियाँ भी दीं-प्रथम, कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करने पर उनके लिए भारतीय प्रशासन को कुशलतापूर्वक चलाना कठिन हो जाएगा। दूसरे, यदि सब अंग्रेजों को भारत के साथ व्यापार करने की खुली छुट दे दी गई तो ऐसे अंग्रेज वहाँ जाएँगे जिन्हें भारतीयों के रीति-रिवाजों का ज्ञान नहीं है। उनकी गतिविधियों से कम्पनी के लिए विभिन प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी। संचालकों की इन युक्तियों का समर्थन कर्नल मैल्कम, कर्नल मुनरो, वारेन हेस्टिंग्स, चार्ल्स ग्राण्ट जैसे कुछ व्यक्तियों ने भी किया, जो कि भारत में अपने जीवन का कुछ समय व्यतीत कर चुके थे।

(4)       वेलेजली ने भारत में युद्ध और विजय की नीति का अनुसरण किया, जिसके कारण भारत में ब्रिटिश राज्य क्षेत्र का बहुत अधिक विस्तार हो गया था। कम्पनी एक व्यापारिक संस्था से अधिक राजनीतिक सम्प्रभु बन गई थी। अतः पार्लियामेन्ट का हस्तक्षेप आवश्यक हो गया था।

(5)       लार्ड वेलेजली की युद्धि नीती के कारण कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत शोचनीय हो गई थी। वह कर्ज के बोझ से दब गई थी। अतः संसद ने 11 मार्च, 1808 ई. को कम्पनी के मामलों की जाँच करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की। इस कमेटी नेआगामी पाँच वर्षों में पाँच रिपोर्टें पेश कीं, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध पाँचवी रिपोर्ट थी। इल्बर्ट के शब्दों में, यह रिपोर्ट अब भी अपने समय की राजस्व, न्याय तथा पुलिस सम्बन्धी व्यवस्था के बारे में आदर्श प्रमाण है। इन रिपोर्टों के आधार पर ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने कम्पनी के मामलों में हस्तक्षेप किया और 1813 ई. का चार्टर एक्ट पास किया।

एक्ट की प्रमुख धाराएँ- इस एक्ट की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं।
(1)       इस एक्ट द्वारा ब्रिटिश संसद ने कम्पनी को आगामी 20 वर्ष के लिए भारत के साथ व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई।

(2)       कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया और सभी अंग्रेज व्यापारियों को भारत से व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई। परन्तु व्यापारियों को भारत के साथ व्यापार करने के लिए लाइसेन्स और परमिट लेना जरूरी कर दिया गया। ये लाइसेन्स संचालक मण्डल से या उसके इन्कार करने पर नियंत्रण मण्डल से प्राप्त होते थे।

(3)       इस एक्ट के अनुसार चाय का व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार का एकाधिकार कम्पनी के हाथों में ही सुरक्षित रहने दिया गया। यह सुविधा इसलिए दी गई थी, ताकि वह इ साधनों की आय से अपना भारतीय शासन प्रबन्ध आसानी से चला सके।

(4)       भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए अनुमति दे दी गई और इसके लिए अधिकारियों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई। इस एक्ट में कहा गया था कि, भारत में रहने वाले तथा वहाँ जाने वाले सभी लोगों को भारतीयों में उपयोगी ज्ञान, धर्म तथा नैतिक उत्थान के प्रचार का अधिकार होगा। इस तरह से भारत में ईसाई धर्म तथा पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार के लिए यह पहला कदम था। परन्तु इस उद्देश्य को छुपाने के लिए एक्ट में यह कहा गया कि कम्पनी की नीति भारतीयों को अनपे धर्म का पूर्ण पालन करने की स्वतंत्रता देने की है।

(5)       कम्पनी ने भारतीयों में शिक्षा प्रसार, उनके साहित्य का उत्थान और उनमें विज्ञान के प्रचार के लिए एक लाख प्रतिवर्ष खर्च करने की व्यवस्था की।

(6)       कम्पनी को अपने व्यापारिक तथा शासन सम्बन्धी खातों को अलग-अलग रखने का आदेश दिया गया।

(7)       बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की शक्तियाँ निश्चित की गई और इसकी निगरानी तथा आदेश जारी करने की शक्तियों को और अधिक बढ़ा दिया गया। कम्पनी के मामलों में अन्तिम निर्णय ब्रिटिश सम्राट का माना जाएगा, परन्तु दीवानी प्रबन्ध कम्पनी के पास ही रखा गया।

(8)       भारत में कम्पनी के प्रदेशों की स्थानीय सरकारों को सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में रहते हुए वहाँ की जनता पर टैक्स लगाने का अधिकार दिया गया और टैक्स न देने वालों के लिए दण्ड देने की व्यवस्था की गई।

(9)       इस एक्ट में भारतीय राजस्व से वेतन पाने वाली ब्रिटिश सेना की संख्या 29,000 निश्चित की गई। इसके अतिरिक्त कम्पनी को यह शक्ति प्रदान की गई कि वह भारतीय सैनिकों के लिए कानून तथा नियम बना सके।

(10)      जिन मुकदमों में एक तरफ अंग्रेज और दूसरी तरफ भारतीय थे, उनके निर्णय की विशेष व्यवस्था की गई। चोरी, जालसाजी तथा सिक्क बनाने वालों के लिए विशेष प्रकार का दण्ड देने हेतु नियम बनाए गए।

 

(11)      गवर्नर जनरल, प्रधान सेनापति और प्रान्तीय गवर्नरों की नियुक्ति कम्पनी के संचालकों द्वारा की जाती थी, परन्तु उन नियुक्तियों के लिए अन्तिम स्वीकृति ब्रिटिश सम्राट से प्राप्त करना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त उन पर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष के हस्ताक्षर भी आवश्यक थे।

(12)      भारत में रहने वाले यूरोपियनों की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कलकत्ता में एक बिशप तथा उसके अधीन तीन पादरी नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। इस तरह ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए भारत में एक सरकारी गिरजे की स्थापना करना अनिवार्य हो गया।

(13)      इस एक्ट द्वारा कम्पनी के नागरिक तथा फौजी कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई। हेलबरी का कॉलेज, ऐटिसकौम्बी का सैनिक शिक्षणालय को बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की देख-रेख में रखने का निश्चय किया गया। कलकत्ता तथा मद्रास के कॉलेजों को भी बोर्ड ऑफ कण्ट्राल के नियमों के अनुसार चलाने की व्यवस्था की गई।

(14)      इस एक्ट में कम्पनी के ऋण को घटना के लिए भी कदम उठाए गए।

एक्ट का महत्त्व
पूर्ववर्ती अधिनियम की भाँति 1813 के चार्टर एक्ट का भी विशेष महत्त्व नहीं था। फिर भी यह एकदम महत्त्वहीन नहीं कहा जा सकता है। इसके द्वारा भारतीय व्यापार पर कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया और सम्पूर्ण ब्रिटिश प्रजा को भारत से व्यापार करने का अधिकार दे दिया गया। अतः अनेक अंग्रेज व्यापारी भारतवर्ष के साथ वाणिज्य तथा व्यापार करने लगे। इंग्लैण्ड का व्यापार आगामी 50 वर्षों में सात गुणा हो गया और वहाँ के देशवासियों ने अपार धन कमाया। व्यापार की इस वृद्धि से अंग्रेज लोक नेपोलियन द्वारा की गई महाद्वीपीय नाकेबन्दी के कारण उत्पन्न हुई आर्थिक हानि की पूर्ति भली-भाँति कर सके।

ब्रिटिश पूँजी और उद्यम के स्वतंत्र आगमन ने भारत में शोषण का एक युग शुरू किया। अंग्रेज व्यापारियों ने अपने बढ़िया तथा सस्ते माल के बल पर भारतीय व्यापार तथा उद्योगों को गहरी चोट पहुँचाई। इसके बाद भारत उद्योग-प्रधान देश न रहकर कृषि-प्रधान देश रह गया। सर एल्फ्रेड लायल के शब्दों में, भारतीय करधों का बना हुआ कपड़ा लंकाशायर के कारखानों में तैयार हुए माल का मुकाबला न कर सका। धीरे-धीरे भारत उद्योग-क्षेत्र में बहुत पीछे रह गया और जनता का मुख्य व्यवसाय कृषि बन गया। डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने भी इस सम्बन्ध में लिखा है, लगभग इसी समय से भारतीयों के उद्योगों का विनाश आरम्भ हुआ, उनकी कृषि पर निर्भरता बढ़ने लगी और देश उत्तरोत्तर निर्धन होता गया।

यह एक्ट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि कम्पनी के प्रदेशों पर वास्तविक सत्ता इंग्लैण्ड नरेश की मानी गई थी। संवैधानिक दृष्टिकोण से यह घोषणा बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी।

इंग्लैण्ड में बहुत समय से लोकमत कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार का विरोध कर रहा था और सबको भारत से स्वतंत्र व्यापार का अधिकार दिए जाने की माँग कर रहा था। यद्यपि कम्पनी ने इस बात का विरोध किया, परन्तु पार्लियामेन्ट के लिए लोकमत की अवहेलना करना सम्भव नहीं था। अतः संसद ने जनता की इच्छा का आदर करते हुए कम्पनी के एकाधिकार पर गहरी चोट की।

इस एक्ट का महत्त्व इस बात में भी निहित है कि इसके द्वारा भारतीयों की शिक्षा के लिए भी एक लाख रूपये प्रतिवर्ष खर्च करने की व्यवस्था की गई। यद्यपि इस दिशा में आगामी बीस वर्षों तक कोई ठोस पग नहीं उठाया जा सका और एक लाख रूपया प्रतिवर्ष जमा होता रहा, तथापि यह एक्ट इस श्रेय का अधिकारी है कि इसके द्वारा ब्रिटिश सरकार ने पहली बार भारतीयों के सैनिक तता बौद्धिक उत्थान का दायित्व अपने ऊपर लिया। इसके अतिरिक्त इस एक्ट ने शिक्षा क्षेत्र में पग उठाने के लिए आधार भी प्रदान किया।

इस एक्ट द्वारा भारत में ईसाई मिशनरियों को ईसाई धर्म का प्रचार करने की आज्ञा दे दी गई। इसलिए उन्हों ने भारत में अनेक स्थानों पर गिरजे, स्कूल तथा कॉलेज स्थापित किए और उनके माध्य से भारतीयों में धर्म प्रचार किया। परिणामस्वरूप हजारों हिन्दुओं ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया, जिससे भारतीय समाज में एक नये सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इसलिए बाद में स्वामी दयानन्द सरस्वती और विवेकानन्द ने इस प्रचार को रोकने के लिए बड़ा भारी प्रयत्न किया।


3. 1833 का चार्टर एक्ट

1833 के चार्टर एक्ट ने कम्पनी के प्रशासन में बहुमुखी तथा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए। मार्लें ने 1908 ई. में संसद के समक्ष भाषण देते हुए कहा कि, यह एक्ट 19वीं शताब्दी के पास होने वाले भारत सम्बन्धी एक्टों में सबसे महत्त्वपूर्ण था।

एक्ट के पास होने के कारण
1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी को भारतीय प्रदेश तथा उनका राजस्व प्रबन्ध 20 वर्षों के लिए सौंपा गया। यह समय 1833 ईं. में समाप्त हुआ और कम्पनी के संचालको ने चार्टर के नवीनीकरण हेतु संसद को प्रार्थना की। उन दिनों इंग्लैण्ड के राजनीतिक वातावरण पर उदारवादी अर्थशास्त्रियों, उपयोगवादियों और मानवतावादियों का प्रभुत्व छाया हुआ था। मानव अधिकार का सिद्धान्त सबकी जबान पर था। दास व्यापार का अन्त हो गया था। दास प्रथा समाप्त कर दी गई थी और प्रेस को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई थी। एक वर्ष पूर्व ही रिफार्म एक्ट पास हुआ था, जिसके द्वारा संसदीय व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन किए गए थे। मुक्त व्यापार के सिद्धान्त ने जनता पर जादू कर रखा था। ब्रिटिश राजनीति पर उन दिनों ग्रे, मैकाले और जेम्स मिल जैसे सुधारवादियों का ही आधिपत्य था। मैकाले संसद का सदस्य और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का सचिव था। प्रधानमंत्री ग्रे भी महान् सुधारवादी था और बेंथम का शिष्य जेम्स मिल संचालक मण्डल के कार्यालय इण्डिया हाऊस में महत्त्वपूर्ण अधिकारी था। उसका मुख्य कार्य संचालकों और भारत सरकार के मध्य होने वाले पत्र-व्यवहार का निरीक्षण करना था। ऐसे सुधारवादियों का एक्ट की रूपरेखा पर प्रभाव होना स्वाभिवाक था। सी.एल. आनन्द के शब्दों में, सुधार और उत्साह के इस वातावरण में संसद को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चार्टर को नया करने का अवसर मिला।

इस विधेयक को पार्लियामेन्ट में पेश करने पर गरमा-गरम बहस हुई। इस बहस में कम्पनी को एक साथ व्यापारिक तथा शासकीय संस्था बनाए रखने की कड़ी आलोचना की गई। बकिंधम ने इस सम्बन्ध में यह शब्द कहे, भारत जैसे देश का प्रबन्ध जो अपनी जनसंख्या, सैन्य शक्ति तथा वित्तीय साधनों में इंग्लैण्ड से भी महान है-एक कम्पनी के हाथों में सौंपे रखना सर्वथा अनुचित है। बकिंधम ने यह सुझाव दिया कि, भारत की सर्वोच्च परिषद् में भारत में रहने वाले अंग्रेजों के और साथ ही लोगों के कुछ प्रतिनिधि सम्मिलित किए जाएँ, जिससे अन्त में स्वशासन की उस प्रणाली का आरम्भ हो सके, जिसकी ओर हमारे अन्य सब उपनिवेशो के साथ उन्हें यथा सम्भव तीव्रतम गति से बढ़ना चाहिए। लार्ड मैकाले इस सुझाव से समहत नहीं थे। उसने बकिंघम के विचारों का सफलतापूर्वक खण्डन किया और भारतीय प्रशासन को कम्पनी के हाथों में रखने पर ही बल दिया। लार्ड मैकाले ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि, भारत में प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना नहीं हो सकती तथा कम्पनी ही ब्रिटिश सरकार के अंग के रूप में भारत में शासन कर सकती है, क्योंकि संसद को भारतीय मामलों का न तो ज्ञान है और न समय ही। भारतीय मामलों के प्रति इंग्लैण्ड की जनता की उदासीनता की ओर संकेत करते हुए मि. मैकाले ने कहा कि, भारतवर्ष के तीन घमासान युद्ध लड़े जाने पर भी हमारी जनता में इतनी सनसनी नहीं फैलती जितना इंग्लैण्ड में किसी व्यक्ति के सिर फूटने की दुर्घटना से...और भारत के करोड़ो मनुष्यों के शासन से सम्बन्धित पग पर विचार करने के लिए हाऊस ऑफ कॉमन्स के इतने सदस्य उपस्थित नहीं होते, जितने कि यहाँ के एक मामूली से बिल पर वाद-विवाद के लिए इकट्ठे होते हैं।

लार्ड मैकाल ने कम्पनी के पक्ष में एक और यह तर्क भी दिया कि ईश्ट इण्डिया कम्पनी देश को राजनीतिक और धार्मिक प्रभावों से मुक्त है। अतः उसका अन्य कोई विकल्प आसानी से नहीं मिल सकता। इसके अतिरिक्त यह कम्पनी इंग्लैण्ड की राजनीति को दृष्टि में रखकर नहीं, अपितु भारत की राजनीति को दृष्टि में रखकर काम करती है। लार्ड मैकाले की इ सार्थक युक्तियों का पार्लियामेन्ट के संसद सदस्यों पर अत्याधिक प्रभाव पड़ा। यही कारण था कि घोर विरोध के बावजूद भी 23 अगस्त, 1833 ई. में चार्टर को पास कर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकार को 20 वर्षों के लिए नया कर दिया गया।

एक्ट की प्रमुख धाराएँ
लार्ड विलियम बैंटिक के शासनकाल में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट द्वारा 1833 का चार्टर एक पारित किया गया। इस एक्ट के द्वारा कम्पनी की स्थिति, उसके संविधान तथा उसके भारतीय प्रशासन में मह्त्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इस एक्ट की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं-
(1)       स्वदेश में कम्पनी के प्रशासन में परिवर्तन

(i)        इस एक्ट द्वारा भारत में कम्पनी का शासन और राजनीतिक सत्ता की अवधि 20 वर्ष तक के लिए बढ़ा दी गई।

(ii)       कम्पनी की कुछ व्यापारिक सुविधाओं को छीन लिया गया तथा चीन के साथ व्यापार करने का इसका एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। उससे कहा गया कि वह अपना व्यापार सुविधापूर्वक जल्दी से जल्दी समेट ले। कम्पनी की हानि को पूरा करने के लिए उसके हिस्सेदारों को उनकी पूँजी के अनुसार 101/2 प्रतिशत दर से लाभांश देने की व्यवस्था की गई। ये लाभांश उन्हें भारतीय राजस्व से आगामी 40 वर्ष तक देने का आश्वास दिया गया।

(iii)       इस एक्ट द्वारा कम्पनी के शासन सम्बन्धी अधिकारों को भी सीमित कर दिया गया। एक्ट में यह स्पष्ट कर दिया गया कि भारतीय प्रदेश कम्पनी के पास ब्रिटिश सम्राट तथा उसके उत्तराधिकारियों की अमानत के रूप में होगा।

(iv)       नियंत्रण मण्डल के संविधान में कुछ परिवर्तन किए गए।

(v)       कौंसिल के लार्ड प्रेसीडैन्ट, लार्ड प्रिवीसिल, ट्रेजरी के प्रथम लार्ड, राज्यच के प्रधान सचिव और चांसलर ऑफ द एक्ट चेकर भारतीय मामलों के लिए प्रदेश कमिश्नर नियुक्त किए गए।

(vi)       इस एक्ट के पूर्व अंग्रेज व्यापारियों और मिशनरियों को भारत आने के लिए लाइसेन्स लेना पड़ता था। परन्तु 1833 के एक्ट के द्वारा लाइसेन्स लेने का प्रतिबन्ध हटा दिया गया तथा अंग्रेजों को भारत के किसी भी भाग में बसने, भूमि खरीदने तथा निवास स्थान बनाने का अधिकार दे दिया गया। लेकिन सपरिषद् गवर्नर जनरल से यह अपेक्षा की गई कि, वे कानून द्वारा या नियम बनाकर जल्दी से जल्दी इन प्रदेशों के देशी निवासियों की अपमान से और उनके शरीर, धर्म या सम्मतियों पर अत्याचार से रक्षा की व्यवस्था करेंगे।

(2)       भारत की केन्द्रीय सरकार में परिवर्तन
पुन्निया के शब्दों में, भारत सरकार तथा प्रशासन में विस्तृत परिवर्तन लाये गए, जिसके लिए एक शब्द-केन्द्रीकरण का प्रयोग किया जा सकता है।
(i)        इस एक्ट द्वारा केन्द्रीय सरकार की शक्तियों में वृद्धि कर दी गई तता प्रान्तीय सरकारों की स्थित को घटा दिया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल को समस्त भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया, क्योंकि पंजाब के अतिरिक्त शेष भारत अंग्रेजों के अधीन हो चुका छा। गवर्नर जनरल को कम्पनी के भारतीय प्रदेशों के समस्त सैनिक तथा असैनिक प्रशासन प्रबन्ध का नियंत्रण निर्देशन और अधीक्षण करने के अधिकार दिए गए।

(ii)       सपरिषद् गवर्नर जनरल को समस्त भारतीय प्रदेशों के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया। इस कार्य के लिए परिषद् में एक चौथा सदस्य और बढ़ा दिया गया, उसको कानून निर्माण में सहायता देने के लिए रखा गया था। इसलिए उसको कानून सदस्य कहा जाने लगा। इसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा होती थी तथा वह कम्पनी का कर्मचारी नहीं होता था। वह कौंसिल की केवल न बैठकों में भाग ले सकता था, जो कानून तथा अधिनियम आदि बनाने के लिए बुलाई गई हों। प्रथम लॉ मैम्बर बनने का सौभाग्य लार्ड मैकाले को प्राप्त हुआ।

(iii)       भारत में प्रचिलत विभिन्न प्रकार के कानूनों और नियमों को संहिताबद्ध करने के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरलस को भारतीय विधि आयोग नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। इस आयोग का कार्य न्यायालयों तथा पुलिस कर्मचारियों के अधिकार क्षेत्र और शक्तियों की जाँच-पड़ताल करना था। इसके अतिरिक्त इसे समस्त प्रकार की न्याय विधियों तथा कानून की छानबीन करनी थी। इस आयोग ने कई रिपोर्टें प्रस्तुत कीं, जिनमैं मैकाले द्वारा तैयार किया हुआ पेन कोड बहुत प्रसिद्ध है।

(iv)       इस सम्बन्ध में सपरिषद् गवर्नर जनरल का क्षेत्राधिकार अधिकृत भारतीय प्रदेशों तथा हर भाग के निवासियों, न्यायालयों, स्थानों तथा चीजों पर लागू कर दिया गया।

(v)       भारत में कानून बनाने की शक्ति सपरिषद् गवर्नर जनरल के हाथ में केन्द्रित कर दी गई। इसके पूर्व भारत में कानूनों की बहुत भिन्नता थी। बम्बई तथा मद्रास की सरकारें अपनी इच्छानुसार कानून बनाती थी। बंगाल की सरकार के साथ उनका इस विषय में कोई मेल नहीं होता था। इसलिए इस एक्ट द्वारा बम्बई तथा मद्रास के गवर्नरों और उनकी कौंसिलों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। सपरिषद् कानून गवर्नर जनरल को सारे देश के लिए समरूप बनाने का अधिकार दिया गया।

प्रान्तों की सरकारों में परिवर्तन
(i)        प्रान्तीय सरकारों के प्रशासन के लिए गवर्नर तथा परिषद् की पूर्ववर्ती व्यवस्था कायम रही। (ii) प्रत्येक प्रान्तीय सरकार को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि वह जिन कानूनों या विनियमों को बनाना आवश्यक समझती है, उनके प्रारूप सपरिषद् गवर्नर जनरल के सम्मुख प्रस्तुत कर सके। सपरिषद् गवर्नर जनरल उस पर विचार-विर्मश कर उसकी सुचना सम्बन्धित प्रेसीडेन्सी को देता था।

(iii)       मद्रास तथा बम्बई के गवर्नरों और उनकी कौसिलों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। इस एक्ट में यह भि निश्चित किया गया कि सपरिषद् गवर्नर किसी भी दशा में किसी भी कानून को निलम्बित नहीं कर सकेगा।

(iv)       वित्तीय मामलों में प्रान्तीय सरकारों को केन्द्रीय सरकार के अधीन कर दिया गया। कोई भी प्रान्तीय गवर्नर बिना गवर्नर जनरल की आज्ञा के किसी पद की व्यवस्था नहीं कर सकता था और न ही उसे किसी नये वेतन या भत्ते स्वीकृत करने का अधिकार था।

(v)       प्रान्तयी सरकारों के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों तथा निर्देशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।

(vi)       हर प्रान्तीय सरकार के लि े सपरिषद् गवर्नर जनरल को सभी आदेशों तथा अधिनियमों की प्रतिलिपियाँ भेजना अनिवार्य कर दिया गया।

(vii)      प्रान्तीय सरकारों को संचालक मण्डल से सीधा पत्र-व्यवहार करने की छूट थी, लेकिन पत्रों की एक प्रतिलिपि उन्हें गवर्नर जनरल को भेजनी पड़ती थी।

(viii)     गवर्नर जनरल को बंगाल के गवर्नर जनरल के रूप में भी काम करना पड़ता था। अतः उसने अपनी कौंसिल के एक सदस्य को बंगाल का डिप्टी गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की।

(ix)       बंगाल प्रान्त को दो प्रान्तों-बंगाल और आगार में विभाजित करने की व्यवस्था की गई, लेकिन इस योजना को कभी क्रियान्वित नहीं किया गया।

सामान्य उपबन्ध अथवा धाराए
(i)        इस एक्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि सरकारी सेवाओं में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के योग्यतानुसार नौकरी दी जाएगी अर्थात् धर्म, जन्म, स्थान, वंश, जाति और रंग के आधार पर सरकारी सेवा में प्रवेश के लिए कोई भेदभाव नहीं बरता जाएगा। यह घोषणा ब्रिटिश सरकार की भारतीयों के प्रति उदार नीति का प्रतीक थी। इसका तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन इस उपबन्ध के आधार पर लार्ड मार्ले ने 1833 के अधिनियम को 1909 तक संसद द्वारा पारित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भारतीय अधिनियम कहा।

(ii)       इस एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल को आदेश दिया गया कि वह अपनी कौंसिल के सदस्यों की सहायता से भारत में दास प्रथा को समाप्त करने का प्रयत्न करे तथा दासों के सुधार के लिए अच्छे नियम बनाए।

(iii)       भारत में ईसाइयों के लाभ के लिए बंगाल, बम्बई तता मद्रास में बिशपों (बड़े पादरियों) की नियुक्ति की व्यस्था की गई और कलकत्ता के बिशप को इनका प्रधान बना दिया गया।

(iv)       कम्पनी के लोक सेवकों के प्रशिक्षण के लिए हेरबरी कॉलेज में व्यवस्था की गई और उस कॉलेज में प्रवेश के सम्बन्ध में नियम बनाए गए।

(v)       कम्पनी का नाम द युनाईटेड कम्पनी ऑफ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू द ईश्ट इण्डिया से बदलकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी कर दिया गया।

एक्ट का महत्त्व
1833 ई. का एक ब्रिटिश संसद द्वारा 19वीं शताब्दी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अधिनियम था। लार्ड मार्ले ने ठीक ही कहा था कि, यह एक्ट 1784 के पिट अधिनिय तथा 1858 में साम्राज्ञी द्वारा भारतीय सत्ता को हस्तगत करने के बीच में सर्वाधिक व्यापाक तथा महत्त्वपूर्ण अधिनियम था। वस्तुतः इस एक्ट ने न केवल भारत के प्रशासन में महान् तथा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया, अपितु कई दयालुतापूर्ण घोषणाएँ भी कीं और व्यापाक मानवतावादी सिद्धान्तों का अनुपालन भी किया।

(1)       इस एक्ट द्वारा कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया। इसलिए अब वह व्यापारिक तथा शासकीय संस्था के स्थान पर केवल शासकीय संस्था ही रह गई। अब भारत का शासन चलाते समय इसका केवल व्यापारिक दृष्टिकोण समाप्त हो गया। चूँकि अब कम्पनी केवल शासन करने वाली संस्था रह गई थी। अतः ब्रिटिश सरकार को इस पर नियंत्रण बढ़ता गया। वह नियंत्रण 1858 ई. में यहाँ तक बढ़ा कि कम्पनी के शासन का अन्त कर दिया गया।

(2)       कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार समाप्त होने पर वह केवल शासन करने वाली संस्था रह गई थी। अतःसंचालक मण्डल कम्पनी के शासन सम्बन्धी मामलों में अधिक रूचि लेने लगे, जिससे शासन प्रबन्ध की कार्यकुशलता में वृद्धि हुई। मार्शमैन के शब्दों में, राज्य सम्बन्धी तथा राजस्व सम्बन्धी कार्यों के एक-दूसरे से पृथक् होने का प्रभाव संचालकों की नीति तथा उनके विचारों पर भी पड़ा। उनके दृष्टिकोण में परम्परागत संकीर्णता के स्थान पर कुछ उदारता आ गई और उनकी प्रेरणा से भारत में काम करने वाले अधिकारियों ने कुछ ऐसे पग उठाए, जो दयालुता तथा बुद्धिमत्ता से ओत-प्रोत थे।

(3)       डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है, इस एक्ट का महत्त्व इसलिए भी है, क्योंकि इसके द्वारा भारतीय विधान-मण्डल की नींव रखी गई। इस एक्ट का महत्त्व इस बात में निहित है कि इसके द्वारा कम्पनी के भारतीय प्रशासन का केन्द्रीकरण किया गया। प्रादेशिक सरकारों को बानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया और गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल को सारे ब्रिटिश भारत के लिए कानून बनाने की शक्ति दे दी गई। इस हेतु गवर्नर जनरल की कौंसिल में कानून सदस्य की वृद्धि की गई। इसके अतिरिक्त प्रादेशिक सरकारों के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। बित्तीय मामलों में प्रादेशिक सरकारों पर गवर्नर जनरल का नियंत्रण सामान्य रूप से स्थापित किया गया। सारांश यह है कि इस एक्ट द्वारा प्रादेशिक सरकारों पर केन्द्रीय नियंत्रण पहले से अधिक दृढ़ तथा व्यापक बना दिया गया। इस नई व्यवस्था से भारतीय प्रशासन में एकरूपता आ गई। वस्तुतः देश की एकता की दिशा में यह एक महान् कदम था।

(4)       इस एक्ट के अनुसार भारत सरकार को दासता समाप्त करने और दासों के सुधार के लिए अच्छे नियम बनाने का अधिकार दिया गया।

(5)       इस अधिनियम की एक बहुत बड़ी देन यह थी कि इसके द्वारा विधि अयोग की स्थापना की गई। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1837 ई. में इण्डियन पेनल कोड का प्रलेख तैयार हुआ जिसने संशोधित होने पर 1860 ई. में कानून का रूप धारण कर लिया। इण्डियन पेनल कोड तैयार करने में विधि आयोग के अध्यक्ष मैकाले ने बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। मि. एल्फ्रेड लायल के शब्दों में, इण्डियन पेनल कोड लार्ड मैकाले की कानून-क्षेत्र में योग्यता तथा निपुणता के प्रति एक स्थायी श्रद्धांजली है।

इस आयोग के पास के फलस्वरूप सारे भारत के लिए दण्ड संहिता तथा दिवानी और फौजदारी प्रक्रिया का संकलन हुआ। इससे कानून में एकरूपता आ गई और केन्द्रीय सरकार की केन्द्रीयकरण की नीति को बल प्राप्त हुआ।

(6)       एक्ट की धारा 87 द्वारा यह घोषणा की गई थी कि कम्पनी के प्रदेशों में रहने वाले भारतीयों को धर्म, जन्म-स्थान, वंश या रंग के आधार पर कम्पनी के किसी पद से, जिसके लिए वे योग्य हों, वंचित नहीं रखा जाएगा। यह दयालुतापूर्ण घोषणा ब्रिटिश सरकार की भारतीयों के प्रति उदार नीति की प्रतिक थी। भारतीयों की दृष्टि में इस घोषणा का बहुत अधिक महत्त्व था। ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने इसकी बहुत अधिक प्रशंसा की। मैकाले ने एक्ट की इस धारा को दयालुपूर्ण, बुद्धिमत्तापूर्ण, उपकारी और उदार कहकर उसकी प्रशंसा की। उसने हाऊस ऑफ कॉमन्स में भाषण देते हुए 10 जुलाई, 1833 को यह भी कहा कि मुझे अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक इस बात पर गर्व होगा कि मैं उन व्यक्तियों में से एक था, जिन्होंने उस बिल की रचना में सहयोग दिया, जिसमें यह सराहनीय धारा थी।

संचालक मण्डल ने इस धारा की व्याख्या करते हुए इस प्रकार लिखा, ब्रिटिश इण्डिया में अब किसी जाति को शासक जाति नहीं माना जाएगा...इंग्लैण्ड नरेश की प्रजा के योग्य व्यक्तियों को चाहे, वे जन्म से भारतीयो हों या अंग्रेज, उनके धर्म और वंश को महत्त्व दिये बिना पद प्राप्त करने का एक समान अवसर दिया जाएगा। कुछ समय बाद लार्ड लैंसडाउन ने एक्ट की इस धारा के सम्बन्ध में यह शब्द लिखे, इस धारा ने कानूनी दृष्टिकोण से जातिगत अयोग्यता को दूर कर दिया है और प्रत्येक भारतीय को शासन के उच्चतम पद की प्राप्ति का अधिकार बना दिया है। रेम्जेम्योर ने इस धारा का गुणगान करते हुए कहा है कि, यह एक अद्वितीय घोषणा है जो कि शासक जाति ने अपने हाल ही में विजित किए प्रदेशों में रहने वाली प्रजा के लिए की है।

निसन्देह यह दयालुतापूर्ण घोषणा प्रशंसनीय थी। इसने कानूनी तौर पर भारतीयों को प्रत्येक पद के लिए योग बना दिया। इससे भारतीयों को भी अंग्रेजों के समान सामाजिक दर्जा प्राप्त हुआ, परन्तु व्यावहारिक रूप में इस धारा से भारतीयों को कोई विशेष लाभ प्राप्त नहीं हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि सरकार ने इस घोषणा का पालन करने के स्थान पर उसकी अवहेलना करने का अधिक प्रयत्न किया। पुन्निया के शब्दो में बहुत समय तक यह घोषणा अपूर्ण मह्त्त्वाकांक्षाओ के लुभावने और बैचेन करने वाले क्षेत्र की वस्तु रही। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, भारतीय शासन प्रबन्ध के कार्यकर्त्ताओं ने अनुच्छेद 87 के पालन की अपेक्षा उसकी अवहेलाना करने का अधिक प्रयत्न किया। प्रसिद्ध लेख ए.बी. कीथ ने लिखा है कि, सारांश यह कि एक्ट की धारा 87 के द्वारा की गई घोषणा के बावजूद भी भारतीयों को 1858 ई. तक उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया गया। अतः उनका निराश होना स्वाभिवाक था।

यद्यपि इस धारा से भारतीयों को व्यावाहिक रूप में कोई लाभ नहीं पहुँचा, तथापि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इसके रचयिताओं की भावना उपकार की ही थी। इसके अतिरिक्त 19वीं शताब्दी के अन्त तक 20वीं शताब्दी के शुरू में यह राष्ट्रवादियों के लिए प्रेरणादायक प्रतीत हुई। इस उत्तम घोषणा के प्रेरणा पाकर पद प्राप्ति के इच्छुक भारतीय उच्च शिक्षा की प्राप्ति के लिए इंग्लैण्ड गये। उन्हों ने वहाँ जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त की और वापस भारत आकर उच्च पदों की माँग की। सरकार ने जान-बूझकर उनकी माँग को पूरा करने में आनाकानी की, तो इससे उन्हें बहुत दुःख और निराशा हुई। इस प्रकार, अंग्रेजों के विरूद्ध असंतोष बढ़ गया, जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापक तता प्रबल बनाने में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया।

निष्कर्षतः 1833 अधिनियम का संवैधानिक दृष्टि से काफी महत्त्व है। इसने अनेक प्रशानिक त्रुटियों को दूर किया। इसने कानून बनाने के सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार की वैधिक सर्वोच्चता स्थापित करके और विभिन्न प्रान्तों के कानूनों की विभिन्नताओं को दूर करके कानूनों के सम्बन्ध में एकरूपता ला दी। इसने विभिन्न न्यायालयों के क्षेत्राधिकारों में विसंगतियों और विरोध को समाप्त कर दिया। इसने कार्यकारी तथा वित्तीय प्रशासन को गवर्नर जनरल के हाथों में केन्द्रि करके प्रशासनिक एकरूपता कायम कर दी। इसने संचालक मण्डल के पंखों को काटकर भारतीय मामलों के सम्बन्ध में सम्राट और संसद की सर्वोच्चता स्थापित कर दी।


4. 1853 का चार्टर एक्ट

1853 के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी के प्रशासनिक ढाँचे में परिवर्तन किए गए, परन्तु इससे शासकीय नीति तथा प्रशासन की कार्यकुशलता में बिल्कुल वृद्धि नहीं हुई।

एक्ट के पास होने के कारण
1853 के चार्टर की पृष्ढभूमि अनोखी थी। जिस समय ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में 1833 के एक्ट पर विचार-विमर्श चल रहा था, उस समय केवल अंग्रेज व्यापारियों तथा ईसाई मिशनरियों ने उसका विरोध किया था। जब 1853 में इस अधिकार-पत्र को फिर से नया करने का समय आया, तब इस अधिनियम के विरोध में भारतीयों ने भी उनका साथ दिया। बंगाल, मद्रास तथा बम्बई प्रान्तों के निवासियों ने बहुत बड़ी संख्या में हस्ताक्षरों से एक प्रार्थना-पत्र ब्रिटिश पार्लियामेन्ट को भेजा, जिसमें कम्पनी के अधिकार-पत्र की अवधि बढ़ाने का विरोध किया गया था।

सन् 1833 के एक्ट की धारा 87 की घोषणा से भारतीयों को बहुत प्रोत्साहन मिला था। अनेक भारतीय युवक उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गए, लेकिन भारत लौटने पर उन्हें निराश ही हाथ लगी, क्योंकि उन्हें काले-गोरे की भेद नीति के कारण उच्च पदों पर नौकरी नहीं मिल सकी। गवर्नर जनरल की कौंसिल के एक सदस्य मि. कैमरोन ने इस सम्बन्ध में इस प्रकार कहा, पिछले 20 वर्षों एक भी भारतीय को किसी ऐसे पद की प्राप्ति नहीं हुई, जिस पर वह सन् 1833 से पूर्व नियुक्त होने का अधिकारी नहीं था।

इस व्यवस्था से भारतीयों को बहुत दुःख तथा निराशा हुई तथा उनमें तीव्रगति से असन्तोष फैला। बंगाल, बम्बई तथा मद्रास के निवासियों ने भारतीय प्रशासन में परिवर्तन के लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट को प्रार्थना-पत्र भी भेजे। इन प्रार्थना-पत्रों में कलकत्ता के निवासियों द्वारा भेजा गया पत्र विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण था क्योंकि इसमें-
(i)        भारत में कानून बनाने के लिए एक अलग विधान-मण्डल की व्यवस्था करने
(ii)       प्रादेशिक सरकारों को आन्तरिक स्वतंत्रता देने की
(iii)       भारत पर शासन करने का अधिकार एक भारत सचिव तथा उसकी कौंसिल को सौंप देने की
(iv)       ब्रिटिश सिविल परीक्षा के लिए प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था करने की माँग की गई थी।

इसके अतिरिक्त कम्पनी के प्रशासन की त्रुटियों को दूर करने के लिए कुछ और भी सुझाव दिए गए। इस प्रकार, विभिन्न प्रेसीडेन्सियों की सरकारों की ओर से संसद में भारतीय प्रशासन में परिवर्तन लाने के लिए अनेक प्रभावशाली सुझाव पेश किए गए थे। अतः ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1852 में इन सब बातों की जाँच करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की और उसकी रिपोर्ट के आधार पर 1853 का चार्टर एक्ट पास किया गया था।

एक्ट की प्रमुख धाराएँ अथवा उपबन्ध - 1853 ई. के एक्ट की धाराएँ अथवा उबन्ध निम्नलिखित थे-
(1)       कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था को सम्बन्धित धाराएँ
(i)        इस एक्ट द्वारा भारतीय प्रदेशों तथा उनके राजस्व का प्रबन्ध कम्पनी को सौंप दिया गया, परन्तु पहले की तरह उसमे ंकोई निश्चित अवधि नियत नहीं की गई, केवल इतना कहा गया कि कम्पनी का शासन भारत में तब तक चलता रहेगा, जब तक कि ब्रटिश संसद कोई अन्य व्यवस्था न करे अर्थात् ब्रिटिश संसद को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह किसी भी समय भारतीय प्रदेशों का शासन अपने हाथ में ले सकती थी। इस प्रकार, कम्पनी को भारतीय प्रदेशों पर अपना आधिपत्य ब्रिटिश साम्राज्ञी तथा उसके उत्तराधिकारियों की ओर से ट्रस्ट के रूप में रखने की आज्ञा दी गई।

(ii)       इस एक्ट में संचालक मण्डल की शक्ति को कम करने के लिए उनके सदस्यों की संख्या 24 में घटाकर 18 कर दी गई। इनमें से 6 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। इसी प्रकार संचालक मण्डल की बैठकों में कोरम की पूर्ति के लिए सदस्यों की संख्या 13 से घटाकर 10 कर दी गई, जिससे सम्राट द्वारा नियुक्त सदस्यों का बहुमत सम्भव हो सके। इसका परिणाम यह हुआ कि कम्पनी के मामलों में ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण और अधिक प्रभावी हो गया।

(iii)       नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों का वेतन कम्पनी देगी। उनके वेतन का निर्धारण साम्राज्ञी द्वारा किया जाएगा। अधिनियम में यह कहा गया था कि बोर्ड के अध्यक्ष का वेतन किसी भी दशा में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के वेतन से कम नहीं होगा।

(iv)       संचालकों से कम्पनी के उच्च सैनिक पदाधिकारियों की नियुक्ति करने का अधिकार छीन लिया गया और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल से नियुक्तियों के बारे में नियम बनाने का अधिकार दिया गया। भविष्य में अनुबन्धित सेवाओं में रिक्त स्थानों पर नियुक्ति प्रतियोगिता परीक्षाओं के आधार पर करने की व्यवस्था की गई। इस प्रकार सिविल सर्विस में भर्ती के लिए लन्दन में प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था की गई। इस परीक्षा में भारतीय युवकों को भी भाग लेने की सुविधा दी गई।

(v)       न्यायिक, वित्तीय और राजनीतिक विषयों की देखभाल के लिए संचालकों ने तीन उप-समितियाँ बनाई। तीन संचालकों की गुप्त समिति पूर्ववरत् बनी रही।

(2)       भारत में केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित उपबन्ध
(i)        गवर्नर जनरल को बंगाल के शासन भारत से मुक्त कर दिया गया। बंगाल के लिए एक अलग गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। इस एक्ट द्वारा यह भी निश्चित किया गया कि बंगाल के गवर्नर नियुक्त होने तक, गवर्नर जनरल संचालक मण्डल की अनुमति से बंगाल के लिए एक लेफ्टिनेन्ट गवर्नर नियुक्त कर सकता है। बंगाल में अलग गवर्नर तो 1912 ई. तक नियुक्त नहीं किया गया, परन्तु 1854 में एक लेफ्टिनेंट गवर्नर बंगाल के लिए और दूसरा पंजाब के लिए नियुक्त कर दिया गया।

(ii)       कम्पनी के भारतीय भू-क्षेत्र के बढ़ जाने से संचालक मण्डल को मद्रास तथा बम्बई की भाँति एक अन्य प्रेसीडेन्सी के निर्माण का अधिकार दिया गया। परिणामस्वरूप 1859 में पंजाब के प्रान्त की रचना हुई।

(iii)       1833 के एक्ट के अनुसार विधि सदस्य को गवर्नर जनरल की कौंसिल में बढ़ाया गया था, जो कानून बनाने के कार्य में उसकी सहायता करता था। विधि सदस्य कौंसिल की केवल उन्हीं बैठकों में भाग ले सकता था, जो कानून के उद्देश्य से बुलाई गई हों। इसलिए उसको शासन सम्बन्धी मामलों का ठीक तरह से ज्ञान नहीं हो सकता था। 1853 के एक्ट के अनुसार विधि सदस्य को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का नियमित सदस्य बना दिया गया। अब उसे शासन सम्बन्धी कार्यों पर विचार करने के लिए बुलाई गई बैठकों में बाग लेने तथा वोट देने का अधिकार दिया गया।

(iv)       इस एक्ट द्वारा पहली बार सपरिषद् गवर्नर जनरल की विधायी तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कार्यों को पृथक् कर दिया गया। विधि निर्माण के उद्देश्य से 6 और सदस्य बढ़ाकर गवर्नर जनरल की कौंसिल का विस्ताक कर दिया गया। ये अतिरिक्त सदस्य थे-बंगाल का मुख्य न्यायधीश, सुप्रीम कोर्ट का एक जज तथा बम्बई, बंगाल, मद्रास एवं उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त की सरकारों के 4 प्रतिनिधि। प्रान्त के 4 प्रतिनिधियों की नियुक्ति प्रान्तीय सरकारों उच्च पदाधिकारियों में से करती थीं। इस तरह से कानून बनाने के लिए परिषद् में 12 सदस्य हो गए-गवर्नर जनरल, प्रधान सेनापित, गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्य तथा 6 नये सदस्य। वैध रूप से हो रही परिषद् की बैठक के लिए सात सदस्यों को कोरम नियत गया था। विधान-मण्डल द्वारा पास किए गए सब विधेयक गवर्नर जनरल की स्वीकृति प्राप्त होने पर अधिनियम बन सकते थे। गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल के द्वारा पास किए गए किसी भी बिल को रद्द कर सकती थी। पुन्निया के शब्दों में, 1853 के अधिनियम के विधि-निर्माण सम्बन्धी उपबन्धों में कार्यकारिणी परिषद् से भिन्न एक विधान परिषद् का आभार स्पष्ट रूप में दिखाई पडता है।

(v)       गवर्नर जनरल की कौंसिल में ब्रिटिश संसद से मिलता-जुलता कानून बनाने का तरीका अपनाया गया। इसे कार्यपालिका से प्रश्न पूछने तथा उसकी नीतियों पर वाद-विवाद करने का अधिकार दिया गया।

(vi)       एक्ट ने भारतीय विधि आयोग, जो समाप्त हो चुका था, सिफारिशों की जाँच और उन पर विचार करने के लिए एक इंग्लिश लॉ कमिश्न की नियुक्ति की व्यवस्था की। इस कमीशन के प्रयत्नों के फलस्वरूप इण्डियन पेनल कोर्ड तथा दीवानी और फौजदारी कार्यविधियों को कानून का रूप दिया गया।

एक्ट का महत्त्व
1853 के एक्ट के द्वारा यद्यपि सरकार की नीति तथा प्रशासन में किसी नवीनता का संचार नहीं हुआ, तथापि यह एक्ट संवैधानिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण पग था। विभिन्न विशेषताओं के कारण इस एक्ट का भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
(i)        1853 के एक्ट के अनुसार यह घोषणा की गई थी कि भारतीय प्रशासन उसी समय तक कम्पनी के अधिकार में रहेगा, जब तक कि पार्लियामेन्ट अन्य कोई व्यवस्था न कर दे। कम्पनी के अधिकार-पत्र को निश्चित अवधि के लिए न बढ़ाकर यह स्पष्ट कर दिया गया कि उसका अन्त बहुत निकट है। इस एक्ट के बनने के केवल पाँच वर्ष बाद ही पार्लियामेन्ट ने भारतीय प्रदेशों का शासन प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया। इस प्रकार, भारत से कम्पनी का राज्य सदा केलिए समाप्त हो गया।

(ii)       इस एक्ट द्वारा संचालक मण्डल की शक्तियाँ घटा दी गईं, जिसके कारण उसकी सत्ता तथा सम्मान को गहरा आघात पहुँचा। इसके सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई, जिसमें से 6 सदस्य ब्रिटिश सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे। संचालकों को भारत के अधिकारियों को नियुक्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। इसके स्थान पर हाऊस ऑफ कॉमन्स को संचालकों की नियुक्ति का अधिकार दे दिया। अब सरकार के लिए भारतीय मामलों से परिचित कम्पनी के रिटायर्ड कर्मचारियों को संचालक मण्डल का सदस्य नियुक्त करना भी सम्भव हो गया। इस नई व्यवस्था के परिणामस्वरूप संचालकों की सत्ता तथा सम्मान को भारी आघात पहुँचा और उन पर ब्रिटिश सम्राट का प्रभाव अत्यधिक बढ़ गया। पुन्निया के शब्दों में, इसलिए इन परिस्थितियों में जब 1873 ई. में पार्लियामेन्ट स्वाभाविक रूप से इस विषय पर विचाकर करती, तब भारतीय राज्य-क्षेत्र को कम्पनी से सम्राट को हस्तान्तरित करने में कोई बाधा न होती। विद्रोह ने तो केवल इतना किया हि इस प्रक्रिया की चाल को तेज कर दिया।

(iii)       इस अधिनियम ने भारत के प्रशासनिक ढाँचे में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर दिए। पहले गवर्नर जनरल अन्य प्रदेशों की निगारनी के अतिरिक्त बंगाल के गवर्नर के रूप में भी कार्य करता था, परन्तु इस एक्ट के अनुसार बंगाल के लिए एक अलग गवर्नर की व्यवस्था की गई, जिससे गवर्नर जनरल का काफी बोझ हल्का हो गया। अब उसके लिए सारे भारत के शासन की देखभाल के लिए ध्यान देना आसान हो गया। इस तरह से प्रशासनिक कार्यकुशलता में वृद्धि हुई। भारत के प्रशासनिक ढाँचे में वस्तुतः यह एक बहुत बड़ा सुधार था।

(iv)       इस एक्ट ने नियंत्रण मण्डल के अध्यक्ष का वेतन इंग्लैण्ड के एक सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के बराबर नियत किया। इससे अध्यक्ष की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई।

(v)       1853 के एक्ट द्वारा 1833 की महान् घोषणा को व्यावहारिक रूप दिया गया। अब भारतीयों के लिए सब पद खोल दिए गए और इस हेतु उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने की अनुमति दे दी गई। इस एक्ट द्वारा सिविल सर्विस में भर्ती के लिए प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था की गई। लन्दन में प्रतियोगिता परीक्षा का स्थान निश्चित किया गया और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को इस सम्बन्ध में नियम और विनियम बनाने का आदेश दिया। इस तरह से नौकरियों में नामजदगी के सिद्धान्त का महत्त्व समाप्त हो गया। इतना सब कुछ होते हुए भी भारतीयों को व्यावहारिक रूप में इस नई व्यवस्था से कोई लाभ नहीं हुआ। प्रथम तो इसलिए कि परीक्षाएँ लन्दन में होती थी। अतः प्रत्येक भारतीय उम्मीदवार के लिए धन खर्च करके परीक्षा के लिए लन्दन जाना सम्भव नहीं था। दूसरे, इस परीक्षा में बैठने की आयु बहुत कम रखी गई। तीसरे, परीक्षा प्रश्नों के उत्तर अंग्रेजी भाषा में देने पड़ते थे। अंग्रेजों की मातृभाषा अंग्रेजी होने के कारण वे भारतीय उम्मीदवारों की अपेक्षा अधिक निपुण सिद्ध होते थे।

(vi)       इंग्लिश लॉ कमीशन की नियुक्ति करके भी इस एक्ट ने बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस कमीशन के 8 सदस्यों ने लॉ कमीशन के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए तीन वर्ष तक अथक परिश्रम किया। उनके प्रयासों से भारतीय दण्ड संहिता और दीवानी तथा फोजदारी कार्यविधियों की संहिताओं को कानून का रूप दिया गया। उन्हें इस एक्ट का महत्त्वपूर्ण योगदान समझा जा सकता है।

(vii)      एक्ट का महत्त्व इस बात में निहित है कि इसके द्वारा विधायी तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कार्यों को पृथक् कर दिया गया। कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की कौंसिल का विस्तार कर दिया गया। मोंटफोर्ड रिपोर्ट के रचियताओं ने इस सम्बन्ध में लिखा है, 1853 में ही विधि निर्माण को पहली बार शासन का एक ऐसा विशेष कृत्य माना गया, जिसके लिए यंत्रजात और विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है।

वस्तुतः इस अधिनयिम ने छोटे से विधायी निकाय को एक छोटी पार्लियामेंट का रूप दे दिया। इसने बिल को पास करने के लिए वही तरीका अपनाया, जो आजकल भी प्रचलित है। गवर्नर जनरल की इस कानून बनाने वाली कौंसिल में सरकार की नीति की आलोचना की जाती थी। इस तरह 1853 ई. में एक ऐसी संस्था का आरम्भ हुआ, जिसका विकिस रूप आज भारतीय संसद के रूप में विद्यिमान है।

एक्ट के दोष
इन महत्त्वपूर्ण देनों के बावजूद भी यह एक्ट दोषमुक्त नहीं था। इसके प्रमुख दोष निम्नलिखित थे-
(i)        इस एक्ट द्वारा कानून बनाने वाली कौंसिल में केवल अंग्रेज सदस्यों को ही रखा गया, जिन्हें भारतीय दशाओं का ज्ञान नहीं था। भारतीयों को इस कौंसिल में न रखने से असंतोष बढ़ा और यह बात विद्रोह का एक सबसे बडा कारण सिद्ध हुई।

(ii)       अनेक प्रकार के भेदभावों, अत्यधिक खर्च तथा इंग्लैण्ड की लम्बी दूरी के कारण भारतीयों को कम्पनी सरकार में उच्च पद प्राप्त करना सपना ही रहा।

(iii)       बंगाल के लोगों ने जो प्रान्तीय स्वराज्य के लिए प्रार्थना-पत्र दिया था, उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया।

(iv)       इस एक्ट का सबसे बड़ा दोष यह था कि इससे इंग्लैण्ड में दोषपूर्ण द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त नहीं किया गया।

1854 का गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया एक्ट
ब्रिटिश संसद ने 1854 ई. में भारत अधिनियम पास किया। इसके द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक परिवर्तन किए गए। इस एक्ट द्वारा सपरिषद् गवर्नर जनरल को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि वह संचालक मण्डल तथा विधान-मण्डल की स्वीकृति से कम्पनी के किसी भी क्षेत्र की व्यवस्था और नियंत्रण को अपने हाथ में ले सकता है। उसे उस क्षेत्र के प्रशासन के सम्बन्ध में सब आवश्यक आदेश तथा निर्देश जारी करने का अधिकार भी दिया गया।

उपर्युक्त उपबन्धों के आधार पर असम, मध्य प्रदेश, उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रान्त, बर्मा, बिलोचिस्तान और दिल्ली में चीफ कमिश्नरों की नियुक्ति की गई।

सी. एल. आनन्द के शब्दों में, इस अधिनियम का प्रभाव यह हुआ कि सपरिषद् गवर्नर जनरल को किसी भी प्रान्त के ऊपर सीधा नियंत्रण रखने के कार्य से छुटकारा मिल गया। इसके बाद से भारत सरकार ने देश के समूचे प्रशासन पर केवल पर्यवेक्षक और निदेशक प्राधिकारी का ही रूप धारण कर लिया।

इस एक्ट द्वारा सपरिषद् गवर्नर जनरल को यह शक्ति भी प्रदान की गई कि वह प्रान्तों की सीमाओं को समीति और निर्धारित कर सके। इस एक्ट में यह भी कहा गया कि गवर्नर जनरल अब से बंगाल का गवर्नर की उपाधि धारण नहीं करेगा।


क्रांति १८५७

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ज्ञान गंगा ऑनलाइन
उदयपुर मित्र मण्डल, डा. सुरेन्द्र सिंह पोखरणा, बी-71 पृथ्वी टावर, जोधपुर चार रास्ता, अहमदाबाद-380015,
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इतिहास अध्यापक मण्डल, गुजरात

 

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